धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की जीवनी हिंदी में Dheerendra Krishna Shastri Biography Hindi me

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  Dheerendra Krishna Shastri का नाम  सन 2023 में तब भारत मे और पूरे विश्व मे विख्यात हुआ जब  धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री के द्वारा नागपुर में कथावाचन का कार्यक्रम हो रहा था इस दौरान महाराष्ट्र की एक संस्था अंध श्रद्धा उन्मूलन समिति के श्याम मानव उनके द्वारा किये जाने वाले चमत्कारों को अंधविश्वास बताया और उनके कार्यो को समाज मे अंधविश्वास बढ़ाने का आरोप लगाया। लोग धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री को बागेश्वर धाम सरकार के नाम से भी संबोधित करते हैं। धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की चमत्कारी शक्तियों के कारण लोंगो के बीच ये बात प्रचलित है कि बाबा धीरेंद्र शास्त्री हनुमान जी के अवतार हैं। धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री बचपन (Childhood of Dhirendra Shastri)  धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री का जन्म मध्यप्रदेश के जिले छतरपुर के ग्राम गढ़ा में 4 जुलाई 1996 में हिन्दु  सरयूपारीण ब्राम्हण परिवार  में हुआ था , इनका गोत्र गर्ग है और ये सरयूपारीण ब्राम्हण है। धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री के पिता का नाम रामकृपाल गर्ग है व माता का नाम सरोज गर्ग है जो एक गृहणी है।धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री के एक छोटा भाई भी है व एक छोटी बहन भी है।छोटे भाई का न

सिन्धु सभ्यता का आर्थिक जीवन,Economic life |saindhav period


::सिंधु सभ्यता में पाई गई बैलगाड़ी की मिट्टी की मूर्ति, जो व्यापार का सूचक है::

सिन्धु सभ्यता का आर्थिक जीवन -------------

  कृषि--- ------- ------ ------


सिन्धु सभ्यता की आर्थिक व्यवस्था यद्यपि नगरीय तरह की थी , परंतु नगरों की स्थापना तभी सम्भव है जब गांव से अतिरिक्त उत्पादन होने लगे , इस अतिरिक्त उत्पादन के लिए कृषि में कुछ नई तकनीक का प्रयोग करने में ही सम्भव है ,कृषि में अतिरेक उत्पादन के लिए मिट्टी उर्वर  होना चाहिए,सिंचाई के साधन हो,खेत की जोताई गहराई से हो सके ,तब खेत मे साल में दो फ़सलें उग सकती हैं, तब अतिरिक्त अनाज से नगरवासियों को भोजन मिल सकता है। सैंधव सभ्यता का व्यापक नगरीकरण  अत्यंत उपजाऊ भूमि की  पृष्ठभूमि में संभव था।

       सैंधव सभ्यता में नदियों से जलोढ़ मिट्टी बाढ़ के बाद एकत्र होने से उपजाऊ हो जाती थी , उस काल मे वर्षा भी अधिक होती थी , जिससे बिना सिंचाई के ही अधिक फ़सल उगाई जा सकती थी ,  सिंचाई के लिए नहरों का प्रमाण नही मिलता , अधिक वर्षा होती थी, जिससे ज्यादा पानी वाली फसलें जैसे धान और कपास भी उगाई जातीं थीं , गेहूँ की तीन और जौ की दो फसलें  उपजाई जातीं थीं  इसके प्रमाण  काफी कम हैं परंतु लोथल और रंगपुर से मिट्टी के  बर्तनों  में धान की भूसी चिपके होने के प्रमाण मिलते हैं , लोथल रंगपुर से बाजरा उगाए जाने के प्रमाण मिलते हैं तो रोजदी नामक स्थान से बाजरा की छह किसमें उगाए जाने के प्रमाण मिलते हैं , तो  हमें हड़प्पा से तिल, सरसों ,राई और मटर उगाए जाने के के साक्ष्य भी मिलते हैं ,सूती वस्त्र को पहने हुए  मृण्मूर्तियों में आकर उत्कीर्ण किये गए है , जिससे ये प्रमाण मिलता है कि कपास की खेती प्रारंभ हो गई थी , फलों की बात करें तो सैंधव काल मे केला, नारियल , अनार , नीबू तरबूज के उगाए जाने के प्रमाण मिलते हैं , साथ में अनेक प्रकार की सब्जियां उगाई जातीं थीं , अभी तक ये धारणा थी कि  खेती करने के लिए भारी हल प्रयोग में नही लाये जाते थे , बल्कि मिट्टी के कोमल होने के कारण पत्थर से बने कुदाल या कांसे से बने छोटे हल की सहायता से जुताई हो जाती होगी , परंतु इस विचारधारा में विराम तब लग गया जब मोहनजोदोड़ो से मिट्टी से बने हल का एक प्रारूप तथा बनावली से मिट्टी से बने हल का पूरा प्रारूप प्राप्त हो चुका था ,
 किसान अनाज को बड़े बड़े गड्ढों में सुरक्षित रखते थे, अनाज को चूहों से बचाने की व्यवस्था की गई थी खुदाई में मिट्टी से बनीं चूहे दानियाँ मिलतीं हैं।

पशुपालन----- ------ ------ -----

कृषि के साथ पशुपालन का ध्यान भी रखा जाता था  सैन्धव मृदभांडों मुहरों  पर की गई चित्रकारी के आधार पर हम उस काल के पशुपालन की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं , पशुओं से दूध और  ऊन प्राप्त होता था ,इनका प्रयोग गाड़ी खींचने में होता था , दूध ,ऊन एवं मांस इन जानवरों से प्राप्त होता था , बड़े जानवरों कूबड़ वाले , गाय , बैल , भैंस , ऊंट हांथी , कुत्ता सुअर, भेंड़, बकरी , हिरण , खरगोश आदि थे ,हांथी दांत में बनी विभिन्न कला कृतियाँ मिलती हैं  व हांथी दांत की विभिन्न वस्तुए मिलतीं हैं  , कूबड़ दार बृषभ  का अंकन  मुहरों में बहुतायत में मिलता है।
 का प्रयोग बोझ ढोने  में और  गाड़ी खिंचवाने  में होता था , सैंधववासी बाघ , गैंडे , सिंह से परिचित थे ,घोड़े संबंधी बहुत थोड़े प्रमाण ,सुरकोतड़ा लोथल ,मोहन जोदड़ो से मिलते हैं , सैंधव काल मे लोग मोर बतख ,खरगोश की भी जानकारी मिलती है।

  शिल्प और उद्योग धंधे-- ------ ----- -----

कृषि तथा पशुपालन के अतिरिक्त सैंधव शिल्पों और उद्योग धंधों में रुचि  लेते थे और कई प्रकार के उद्योग धंधों का विकास हो चुका था ,इनके व्यवसायों में वस्त्र बुनना,मिट्टी के बर्तन बनाना , आभूषण बनाना ,लकड़ी के समान तैयार करना , ईंट और खिलौने बनाना ,धातु का काम करना, सूत कातना ,कपड़े बुनना, मुहर एवं गुड़िया के मनके बनाना , पत्थर एवं धातु के औजार बनाना ,उपकरण एवं मूर्तियां तैयार करना ,खुदाई में प्राप्त कताई बुनाई के उपकरणों का पता चलता है है कि वस्त्र उद्योग का विकास हो चुका था लोग कपड़े  बिना  सिले और सिले दोनों प्रकार के पहनते थे ,मोहनजोदड़ो से प्राप्त पुरोहित की मूर्ति में तीन फूलों से चित्रित कपड़ा ओढ़े हुए मिलता है। इसके अतिरिक्त अन्य व्यवसाय जैसे जौहरी का व्यवसाय, नाविक, चिकित्सक का व्यवसाय मकान बनाने वालों का व्यवसाय , चिकित्सक का व्यवसाय, हाँथी दांत में नक्कासी करने का व्यवसाय , बढ़ई गिरी के व्यवसाय में दरवाजे , बेंच , कुर्सियां, पलंग , बैलगाड़ी ,नाव आदि भी बनाये जाते थे।

              चाक पर बर्तन बनाना , मोहरें बनाना , मुद्राओं का निर्माण करना , आभूषण ,गुरियों का निर्माण करना कुछ अन्य उद्योग धंधे थे ,

   धातु उद्योग में सोना चांदी , तांम्बे कांसे का प्रयोग सैंधव वासी करते थे , तांम्बे कांसे का प्रयोग बर्तन बनाने ,अस्त्र शस्त्र   जैसे  कुल्हाड़ी , धनुष ,बाण ,भाला ,गदा ,बल्लम  ,छेनी ,कुल्हाड़ी   बनाने में तांबा, काँसा का प्रयोग इन  सब मे होता था , तांम्बे बनाने , चांदी धातु का प्रयोग आभूषण बनाने में प्रयोग होता था  आभूषणों में गले का हार कंगन ,इयरिंग  बनते थे , लोथल से प्राप्त कण्ठहार अनेक सुवर्ण मनकों से बना होता था , साथ मे  चांदी से बर्तन भी बनाये जाते थे।  धातु से मूर्तियां भी बनती थीं मोहनजोदाड़ो से प्राप्त नर्तकी की मूर्ति सबसे प्रसिद्ध थी , लोथल से एक तांबे से बना कुत्ता भी मिला है, हड़प्पा से तांम्बे  का बना कुत्ता मिला है ।
                          सैंधव काल मे पक्के ईंट के भवन मिलते हैं , जिससे साबित होता है ईंट उद्योग विकसित था ,ईंट बनाने के भट्ठे मोहनजोदाड़ो में विकसित था। ,कुम्हार विशेष प्रकार के बर्तन बनाते थे ,बर्तनों को पकाने , उन्हें रंगने, उन्हें चमकदार बनाने तथा बर्तन में चित्र बनाने की तकनीकी से कुम्भकार दक्ष थे,  बर्तन सामान्यता बड़े आकार के थे जिनमें अन्न, जल आदि संगृहीत किया जाता था, आलमगीरपुर से मिट्टी की बड़ी बड़ी थालियां मिलतीं हैं बर्तनों में जो चित्र बनाये जाते थे उनमें पशु पक्षियों, बृक्षों, प्राकृतिक दृश्यों, तथा ज्यामितीय चित्र में कई  जुड़े हुए वृत्त (circle) ,त्रिकोण (triangle) , शंकु(cone) , अर्धचन्द्र (crescent) स्वास्तिक  बने होते थे, इसके अलावा वानस्पतिक  वस्तुओं का चित्रण अधिक हुआ है  जैसे पीपल , नीम , केला के पेड़ चित्रित किये गए , जंतुओं में मछली , मोर ,कछुआ , चिड़िया का चित्रण अधिकांशतया हुआ है  मोहनजोदाड़ो से कनखजूरे के  अंकन के प्रमाण मिलते हैं , लोथल से प्राप्त एक एक मृदभांड में बारह सिंघे को एक पेंड के नीचे दिखाया गया है।

  लोथल से प्राप्त एक मृदभांड में चोंच में मछली दबाए , एक चिड़िया बैठी है नीचे एक पेंड के नीचे एक लोमड़ी बैठी है ये दृश्य पांच तंत्र के चालाक लोमड़ी से साम्यता प्रकट करता है।  मृदभांडों से मानव के अंकन के प्रमाण भी मिलते हैं , हडप्पा से प्राप्त एक मृदभांड में एक मछुआरा कंधे पर बहंगी और जाल लिए जा रहा है ,मृदभांडों  का लगभग तीन चौथाई भाग ही चित्रित किया जाता था।           

              कुम्भकारों ने खिलौना गाड़ियां ,मिट्टी की मूर्तियां बहुत अधिक संख्या में मिली हैं ,इनको देखने मे कुंभकारों की दक्षता का पता चलता है ,बर्तनों में घड़े ,प्याले, थाली, सुराहियां, बड़े बड़े नांद प्रमुख हैं।चन्हूदड़ो और लोथल से मनके तथा मोहरें बनाने का कारखाना मिलता है, बालाकोट लोथल में सीप उद्योग सुविकसित था। कारीगरों में एक वर्ग अर्ध बहुमूल्य पत्थरों , मनके(beads) भी बनाता था ,हांथी दांत सीप , घोंघा , मिट्टी  के भी मनके बनते थे , इन मनकों के विभिन्न आकार प्रकार है इन पर मानवों ,पशु पक्षियों की आकृतियां तथा कई में कुछ लेख खुदे हैं।

 व्यापार -वाणिज्य------- -------- -------

सैंधव निवासियों का आंतरिक और बाह्य व्यापार दोनों समुन्नत था , बड़े पैमाने पर व्यापार के कारण ही सैंधव नगरों का विकास सम्भव हुआ , इनमे बड़े व्यापारिक केंद्र हडप्पा और मोहनजोदाड़ो थे , दोनों व्यापारिक मार्गों से जुड़े हुए थे ,यहां के व्यापारी मुख्यता जलीय मार्गों का प्रयोग करते थे परंतु स्थलीय मार्ग से भी व्यापार होता था , इन दो नगरों से राजस्थान, बलूचिस्तान, गुजरात  तक बैलगाड़ीयों में माल लादकर भेजा जाता था

           सैंधव काल मे   कच्चे माल को दूर से लाने और बनी हुई वस्तुओं को दूर बाजार तक पहुंचाने के लिए व्यापार वाणिज्य का विकास हो चुका था , पुरातात्विक खोजों से  व्यापार संबधी क्रियाकलाप का प्रमाण मिलता है  , चांदी ईरान अफगानिस्तान से आता था ,सोना दक्षिण भारत  के कोलार से आता
 था , चांदी अफगानिस्तान , आर्मीनिया ,फारस से आता था , तांबा राजस्थान ,कश्मीर , चेन्नई  से आता था , तांबा राजस्थान, बलूचिस्तान , अरब  देश से आता था , टीन अफगानिस्तान , ईरान , महाराष्ट्र,  सौराष्ट्र, राजस्थान, कश्मीर से मंगवाया जाता था, अर्ध कीमती पत्थर राजस्थान और काठियावाड़ से प्राप्त किये जाते थे, सिन्धु सभ्यता में कच्चा माल बाहर से आता था और उस कच्चे माल को निर्मित करके विदेशों में भेजा जाता था। विभिन्न  प्रकार के धातुओं और बहुमूल्य पत्थर  का आयात सबसे अधिक मात्रा में होता था , सिक्कों का प्रचलन नहीं था तथा क्रय विक्रय वस्तु विनिमय द्वारा किया जाता था, मोहन जोदड़ो तथा लोथल से हांथी दांत के बने हुए तराजू के पलड़े मिलते हैं, उनके बाट मुख्यता घनाकार होते थे, सैंधव व्यापारी अपनी मुहर रखते थे जिन्हें वो अपने व्यापारिक वस्तुओं के ऊपर लगा देते थे।
        सैंधव निवासियों ने विश्व के कई अन्य महत्वपूर्ण देशों से भी घनिष्ठ व्यापारिक  सम्बन्ध स्थापित किये थे , अफगानिस्तान , अमिनिया , ईरान से चान्दी तथा लाजवर्द मणि का आयात किया जाता था , मेसोपोटामिया और सिंधु सभ्यता के बीच भी जल और थल से होने से प्रमाण पुरातत्व अन्वेषण से होता है,मेसोपोटामिया के विभिन्न स्थल ---सुमेर, उर, तेल,अस्मर, किश,लगश, निप्पुर, असुर आदि जगहों में सिन्धु कारीगरों द्वारा निर्मित  हाँथी दांत की वस्तुएं ,मनके, मुहरें प्राप्त होती हैं, उर की ख़ुदाई से  हड़प्पा मूल का तांम्बे का सृंगार दान मिला है ,मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहर  तथा ठाकरे के ऊपर सुमेरियन नावों के चित्र अंकित हैं जो दिखातें हैं कि समुद्री मार्ग से बहुतायत में व्यापार होता था, हांथी दांत की वस्तुएं मेसोपोटामिया में प्रचुर मात्रा में भेजी जाती  थी ,दूसरी ओर मेसोपोटामिया से सेलखड़ी की बटन , खानेदार मनके सैंधव नगरों में भेजे जाते थे ,सुमेरियन लेख से इस सम्बंध में महत्वपूर्ण विवरण मिलते हैं, तीन व्यापारिक स्थल के नाम मिलते हैं इनमे पहला ""दिलमुन" दूसरा" मेलुहा" तीसरा" माकन "था, मेलुहा की पहचान सिन्ध क्षेत्र से की गई है, वहीं दिलमुन की पहचान  बहरीन द्वीप  से  मगन की पहचान बलूचिस्तान से की गई है, बहरीन द्वीप के कुछ स्थलों  की खुदाई में   घनाकार बांट, सेलखड़ी की मुहरें प्राप्त हुईं हैं जिन पर सैंधव लिपि में लेख खुदें हैं। संभवता सिन्धु और मेसोपोटामिया के बीच स्थित होने के कारण बहरीन बिचौलिया की भूमिका निभाता होगा ,इसी तरह ओमान में भी सिंधु क्षेत्र की कलात्मक वस्तुएं मिलतीं हैं  सम्भवता ओमान भी बिचौलिए की भूमिका निभाता था।
             ये दोनों स्थान सिन्धु और मेसोपोटामिया के मध्य स्थित थे, व्यापार में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती थी, मेसोपोटामिया में एक  बन्दरगाह का नाम मिलता है इसका नाम था""उर"" मेसोपोटामिया का ये स्थान प्रवेश द्वार था ,यहां हर जगह के व्यापारी एकत्र होते थे ,यहां के उत्खनन में जिन चीजों की प्राप्ति हुई है  उन चीजों की अधिकता सिंधु क्षेत्र में अधिकता थी ,मेसोपोटामिया और  सिन्धु क्षेत्र के बीच व्यापार करीब 500 वर्ष तक फलता फूलता रहा मेसोपोटामिया के   सारगोन काल  (2400-1750 ईसा पूर्व) में ही मेलुहा नामक जगह का प्रयोग हुआ है बाद में मेलुहा का  उल्लेख नही मिलना ये दर्शाता है कि 1750 ईसा पूर्व के बाद धीरे धीरे दोनों देशों के बीच व्यापार ख़त्म हो गया।
    मेसोपोटामिया के अलावा सिंधु क्षेत्र का व्यापार मिस्र की सभ्यता से भी था ,क्योंकि  राव महोदय को लोथल के उत्खनन के बाद वहां से गोरिल्ला की एक मृण्मूर्ति और ममी की एक आकृति मिलती है जो ये सिद्ध करती है कि लोथल में अफ्रीका के  मिस्र से भी व्यापार होता था।

https://www.sansarlochan.in/sindhu-ghati-sabhyata-vyapar-udyog/

सिन्धु सभ्यता का आर्थिक जीवन,economic life of saindhav period



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