ताम्र पाषाण युग- The Chalcolithic Age
नव पाषाण कालीन सभ्यतामें उत्तरोत्तर विकास के बाद ताम्र पाषाण कालीन सभ्यता का विकास हुआ, इसका समय 5000 से 4000 साल पूर्व था , इस सभ्यता में तांबे के हथियार सामान्यता प्रयोग में लाये गए , साथ मे कुछ पत्थर के हथियार भी प्रयोग में लाये जाते रहे , यद्यपि ताम्र पाषाण काल की अवधि बहुत ज्यादा नही थी जितनी आगे की सभ्यता लौह युग की परंतु इस सभ्यता के द्वारा किये जा रहे प्रयोगों से ही आगे की सभ्यता को नींव प्रदान की।
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ताम्र पाषाण काल के हथियार |
ताम्र पाषाण युग---
जिस समय सिंधु सभ्यता अपने चरमोत्कर्ष पर थी उस समय देश के अलग अलग भागों में तांबे को प्रयोग में लाने वाली कुछ कृषक बस्तियां तेजी से विकसित हो रहीं थीं, इन सभी बस्तियों में अपनी अपनी कुछ क्षेत्रीय विशेषतायें भी दिखतीं है,इसलिए क्षेत्रवार इन बस्तियों को अलग अलग स्थल नामों से जाना जाता है।
ताम्र पाषाण कालीन संस्कृति की कुछ सामान्य विशेषतायें पाई जातीं थी,ये अधिकांसता ग्रामीण बस्तियां थीं और कृषि पर इनकी आर्थिक स्थिति निर्भर थी,ये गोल तथा आयताकार झोपड़ियों में रहते थे, इनकी झोपड़ियां मिट्टी के गारे से बनीं होती थी।इनको पकी हुई ईंटों का ज्ञान नहीं था और भवन निर्माण समूह में होता था। ये लाल तथा काले रंग के चित्रित मृद्भांडों का प्रयोग करते थे। लगभग सभी स्थलों से नारी मृण्मूर्तियों की प्राप्ति होने से यहां पर मातृ पूजा के प्रमाण मिलते हैं मातृदेवी के आलावा बैल और अग्निपूजा के साक्ष्य मिलते हैं।
ताम्र के खोज से कई क्षेत्रों में विकास हुआ, ताम्र पाषाण लोंगों ने मृदभांड तकनीकी और धातुकर्म में उल्लेखनीय प्रगति की। 2000-1800 ईसा पूर्व के दौरान विकसित हुई इस गेरुवर्णी मृदभांड संस्कृति के अवशेष गंगा यमुना के दोआब में पाये गए थे। ताम्र पाषाण कालीन स्थलों के उत्खनन में ताम्बे के मनके, सिल्ट एवं अन्य वस्तुएं मिलीं हैं। बैलगाड़ी के पहियों में तांबे के फाल लगाए गए, हल में तांबे का प्रयोग ,बैल के जुए में तांबे का प्रयोग हुआ ,मुहर में तांबे का प्रयोग हुआ, हल में तांम्बे के प्रयोग से उत्पादन गहरी जुताई होने लगी, जिससे उपज में वृद्धि हुई। ताम्र पाषाण कालीन संस्कृतियाँ जिन क्षेत्र में विकसित हुईं वो काली मिटटी वाला क्षेत्र था,इस क्षेत्र की शुष्कता के कारण जीवन निर्वाह के लिए कृषि मुख्य साधन थी।
ये पशुपालक थे और फसल चक्री करण का प्रयोग एवं अनाज भण्डारण करते थे। इनकी मुख्य फसल जौ, गेहूं ,चावल,बाजरा,ज्वार ,मसूर, चना ,मटर आदि थीं।
कृषि के अलावा ये ये लोग मछली पालन,जंगली पशुवों के शिकार पर भी निर्भर थे।
भारत मे अनेक ताम्र पाषाण युगीन स्थल प्रकाश में आये हैं,इस से जुड़े स्थल पश्चिमी मध्यप्रदेश,दक्षिण राजस्थान,और महाराष्ट्र तथा पूर्वी भारत मे पाए गए हैं, एक दो स्थल बिहार,उत्तर प्रदेश,और बंगाल में भी मिले हैं।
राजस्थान की बनास घाटी में दो प्रमुख स्थल भी प्रकाश में आए १-आहड़ अथवा बनास २-गिलुन्द इन दोनों जगहों पर बड़ी बस्तियों के प्रमाण मिलते हैं ,आहड़ अथवा बनास संस्कृति में तो मकान कच्ची ईंटों के बने मिलते हैं तो गिलुन्द में पकाई गई ईंटों से बने मकान मिलते हैं , मिट्टी के बर्तन काले और लाल (black and red ware) रंग के हैं , इन पर सफेद रंग के चित्र भी बनाये गए हैं, पत्थर के छोटे उपकरण के साथ ताम्र उपकरण भी बहुतायत में पाए गए हैं जैसे ताम्बे कि कुल्हाड़ियाँ, ताम्बे के चाकू, ताम्बे के भाले, ताम्बे की अंगूठी,तांबे की चूड़ियां आदि बनाये जाते थे। कृषि,पशुपालन के प्रमाण मिलते हैं , मृण्मूर्तियां ,मनके मुहरों का भी प्रयोग होता था ,
मध्यप्रदेश के स्थलों में कायथा, नवदाटोली, एरण , प्रमुख स्थल हैं , ताम्र पाषाण कालीन संस्कृतियों में कायथा संस्कृति सबसे पुरानी है,जो चम्बल नदी के क्षेत्र में स्थित थी, कायथा में तो मिट्टी के चाक निर्मित बर्तन मिलते हैं ,नवदा टोली में काले लाल रंग के मृदभांड , सुनियोजित बस्ती , तथा चावल ,गेहूं ,मटर ,मसूर,खेसारी के फ़सल के प्रमाण मिलते हैं ।
महाराष्ट्र से भी अनेक ताम्र पाषाण कालीन स्थल प्रकाश में आए हैं। इनमे प्रमुख,नासिक,जोरवे,नेवासा,चंदौली, इनामगांव , दायमाबाद ,प्रकाश आदि हैं के साथ मे यहां पशुपालन के प्रमाण भी मिलतें हैं ,पशुपालन में गाय, भेंड़,बकरी,सुअर, भैंस पालने के प्रमाण मिलते हैं , नेवासा से तो कपास की खेती के प्रमाण मिलते हैं , यहां पर कच्ची ईंट के वर्गाकार या फिर गोलाकार घास फूस की छत से मकान बनते थे ,घरों का आकार बड़ा होता था , घरों में चूल्हा व तंदूर भी बना मिलता है , यहां सूत कातने वस्त्र बुनने के भी प्रमाण भी मिलतें हैं ,मातृ देवी की मृण्मूर्तियां भी मिलतीं हैं ,उत्तरवर्ती जोर्वे चरण की बस्तियों में लगभग 200 जोर्वे बस्तियों के अस्तित्व मिलता है ,इनाम गांव के प्रारंभिक जोर्वे चरण की बस्तियों में सिंचाई नालियों एवं बांधो के अस्तित्व का पता चलता है,महाराष्ट्र की ग्रामीण जोर्वे संस्कृति से बर्तन पकाने की भट्ठियां तांम्बे के आभूषण, स्वर्ण आभूषण, पशु एवं अग्नि पूजा के संकेत मिलते हैं ,इस जोर्वे संस्कृति का अंत 1000 ईसा पूर्व के आसपास हुआ।
महाराष्ट्र में कायथा संस्कृति के समकालीन एक सवालदा संस्कृति अस्तित्व में आई जो महाराष्ट्र के धुलिया जिले में अवस्थित है ।
शवाधान पूर्ण समाधीकरण होता था या फिर मिट्टी के बर्तन में किया जाता था साथ मे ताम्बे की वस्तुऐं, आभूषण आदि भी शवों के साथ रख दी जाती थीं। मृतक के शव को उत्तर दक्षिण दिशा में रखा जाता था, बच्चों को कलश में दफनाया जाता था। इनाम गांव में चार पैरों वाला अस्थिकलश मिला है।
ताम्र पाषाण काल के कुछ स्थल उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के आसपास, सोहगौरा स्थल बिहार में चिरांद,और पश्चिम बंगाल में पांडु राजार ढिबी, महिसादल में ताम्र पाषाण कालीन स्थल पाए गए हैं ।
ताम्र पाषाण कालीन ये सभ्यता 2000 ईशा पूर्व के दौरान विकसित हुई और 1000 ईशा पूर्व के आसपास लुप्त हो गई,केवल परिवर्तित जोर्वे चरण में ये 700 ईसा पूर्व तक जीवंत रही।
नवपाषाण काल और ताम्र पाषाण काल मे संबंध----- ----- ------ -------
भारत मे नवपाषाण काल और ताम्र पाषाण काल तथा ताम्रपाषाण काल मे कहीं क्रमिक परिवर्तन मिलता है कहीं सीधे ताम्रपाषाण काल मे प्रवेश होता है , दक्षिण भारत और पूर्वी भारत मे कुछ नवपाषाण काल के स्थल थे जो धीरे धीरे ताम्रपाषाण काल मे प्रवेश कर रहे थे ,परंतु कुछ नव पाषाण कालीन स्थल ताम्रपाषाण काल की अवस्था मे नहीं पहुंच सके बल्कि पहले ही समाप्त हो गए ,तीसरे प्रकार के ताम्रपाषाण काल के स्थल सीधे ताम्रपाषाण काल मे प्रवेश करते है यानी उन स्थलों में नवपाषाण काल का कोई भी साक्ष्य नही मिलता ,यानी ये बस्तियां ऐसी है जिसमे सीधे बाहर से आकर लोग बस गए होंगे ,इस प्रकार की बस्तियाँ पश्चिमी राजस्थान में आहार संस्कृति ,मध्य भारत मे कायथा और मालवा संस्कृति ,महाराष्ट्र में जोर्वे संस्कृति आदि।
हड़प्पा सभ्यता और ताम्रपाषाण के बीच संबंध---- ---- ------ ------
चूंकि तकनीकी दृष्टि से तांबा कांसे से पहले आया इसलिए ताम्रपाषाण कालीन बस्तियाँ हडप्पा संस्कृति से पहले की हैं, परंतु कुछ ताम्रकालीन बस्तियाँ हड़प्पा के समकालीन हैं, परंतु ज़्यादातर ताम्रकालीन बस्तियाँ हड़प्पा सभ्यता के बाद कि ही हैं,द्वितीय सहस्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य तक हड़प्पा के नगरीय जीवन का अंत हो गया ,गंगा की घाटी में छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक, जैसा कि पुरातात्विक प्रमाणों से ज्ञात होता है कि अशिक्षित कृषि समुदायों के अस्तित्ब था ।
गणेश्वर स्थल-
गणेश्वर स्थल जो उत्तर पूर्व राजस्थान का स्थल है यहां पर प्रारंभिक हड़प्पा काल ताम्र धातु का प्रयोग शुरू हुआ और बाद में परिपक्व हड़प्पा काल मे प्रचलित था क्योंकि दो गणेश्वर स्थल से हड़प्पा के बर्तन मिले हैं , इसके अलावा गणेश्वर के घुमावदार शीर्ष वाले तांम्बे के पिन कुछ हड़प्पा स्थल से प्राप्त हुआ है।
आहार गिलुन्द बनास संस्कृति स्थल- --
दक्षिण पूर्व राजस्थान में बनास और बेरच नदियों के मैदान में दो स्थल ही ठीक तरीके से उत्खनित हुए हैं ,इन संस्कृतियों की शुरुआत 2500 ईसा पूर्व हुई है ,आहार की सर्वप्रमुख विशेषता यहां के ताम्र धातुकर्म का ज्ञान था ,इस सभ्यता का गुजरात की हड़प्पा संस्कृति से सम्पर्क था,आहार से कार्नेलियन और लाजवर्द के मनके प्राप्त हुए हैं साथ मे रंगपुर की तरह लाल चमकीले बर्तन आहार के गुजरात हड़प्पावासियों के संपर्क को दिखातें हैं, इसी प्रकार इस ताम्र पाषाण कालीन संस्कृति का मालवा की तरफ विस्तार हुआ।
मालवा के ताम्र पाषाण कालीन स्थल----
मालवा में यद्यपि सौ से अधिक ताम्र पाषाण कालीन स्थल मिले हैं ,इस क्षेत्र में कॄषि के विकास का प्रारंभिक चरण उज्जैनी के निकट के स्थल कायथा में मिलता है जो तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व उत्तरार्द्ध का है साथ मे नवदातोली है जिसका काल द्वितीय सहस्राब्दी ईसा पूर्व का है , यहां पर सांड और लिंग पूजा के उदाहरण मिले है मालवा में परवर्ती हड़प्पा वासियों के साथ सम्पर्क के साक्ष्य मिलते हैं।
2700 ईसा पूर्व के आसपास जब बलूचिस्तान के हाकड़ा घाटी में सिन्धु सभ्यता का विकास हुआ, उस समय बाकी उपमहाद्वीप में शिकारी और खनाबदोश बस्तियों के प्रमाण मिलते है जो सीमित मात्रा में प्रारंभिक कृषि की को प्रारम्भ कर चुके थे , सैंधव संस्कृति के लोंगो का जब पूर्व की तरफ विस्तार हुआ तो उनका संपर्क पूर्व की खनाबदोश संस्कृति से हुआ इन दोनों के मेलजोल के प्रमाण गणेश्वर की बस्तियों से मिलते हैं।
Thanks
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