[गुप्त कालीन संस्कृति]
Gupt kaleen sanskrit ,sahitya, art
गुप्त काल की संस्कृति ,साहित्य, कला
गुप्त काल का समय 300 ईस्वी से 600 ईस्वी तक रहा है ,इस समय हिन्दू धर्म ग्रन्थो में ,ज्ञान विज्ञान ,कला साहित्य में अत्यधिक उन्नति हुई इसीलिए गुप्तकाल को स्वर्णयुग कहा जाता है।
गुप्त कालीन धर्म........
गुप्त काल में धार्मिक दृष्टीकोण से पुनुरुत्थान हुआ ,इस समय मन्दिरों और मूर्तियॉ बनी, इसी समय पौराणिक धर्म हिंदू धर्म की स्थापना हुई,इस समय वैष्णव धर्म प्रधान धर्म बन गया ,अधिकांश गुप्त सम्राटों ने इसी धर्म को अपनाया और स्वयं स्वयं परम भागवत की उपाधि धारण की तथा अपने सिक्कों पर शंख ,चक्र ,गदा ,पद्म , गरुण और लक्ष्मी की आकृतियां बनवाईं, गुप्त शासकों के संरक्षण के कारण ही वैष्णव धर्म न केवल भारत तक रहा बल्कि ये पूरे दक्षिण पूर्व एशिया , कंबोडिया ,इंडोनेशिया तक फ़ैल गया। विष्णु की अनेक मूर्तियां बनीं अनेक मन्दिर बनें , विष्णु को अनेक अवतारों के रूप में चित्रित किया , विष्णु के 24 अवतारों की मूर्तियां मन्दिरों में उकेरी गईं। विष्णु के अनेक मन्दिरों में विष्णु चक्र भृति बराह अवतार अथवा अनंतशायी के रूप में प्रतिष्ठित थे। दिल्ली के मेहरौली का लौह स्तम्भ जिसमे चन्द्र लिखा गया है ये स्तंभ गुप्तकाल का बना हुआ है और ये एक विष्णु-ध्वज है। 401 ईस्वी की उदयगिरि की गुहा में चतुर्भुज विष्णु और बारहभुजा धारी देवी लक्ष्मी की मूर्तियाँ मिलतीं हैं
इस काल में वैष्णव मत के आलावा शैव मतावलंबी हुवे शैव सम्प्रदाय का विकास हुआ ,यद्यपि गुप्त लोंगों का व्यक्तिगत धर्म वैष्णव था ,परंतु उनके कई सामंत ,सेनापति शैव मतावलंबी थे,जैसे चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का सेनापति वीर सेन साब शैव धर्म का ज्ञाता था,उसने अपनी आस्था अनुरूप उदयगिरि पहाड़ियों में शैव संतों के निवास के लिए गुफाएं बनवाईं, इसी तरह कुमार गुप्त के सेनापति पृथ्वीषेण शैव धर्म का अनुयायी था उसने भी अपनी आस्था अनुरूप करमदंडा नामक जगह में शिव की एक प्रतिमा स्थापित की थी। इसीतरह एक अन्य सामंत महाराज हस्तिन ने खोह अभिलेख में नमो महादेव का उल्लेख किया था ये जानकारी मिलती है , गुप्तकाल में शिव की मानवीय रूप में भी पूजा होती थी और शिव को लिंग रूप में भी पूजा जाता था ,"कोसम" नामक स्थान से भगवान् शिव की मानवीय स्वरुप की उत्कृष्ट मूर्ति प्राप्त हुई है तो लिंग रूप में भगवान शिव की उत्कृष्ट मूर्ति हमे "नागोद" नामक जगह से मिली है।
कालिदास की रचनाओं में काशी के विश्वनाथ ,उज्जैन के महाकाल के ज्योतिर्लिंग का उल्लेख मिलता है ,वायु पुराण में शिव की महिमा का वर्णन मिलता है , वामन पुराण में चार शैव सम्प्रदाय का उल्लेख मिलता है ये हैं : 1- कापालिक , 2-पाशुपत, 3-वीरशैव संप्रदाय 4 - कालमुख का उल्लेख मिलता है , गुप्त काल के सामंतों और पदाधिकारियों नें इस मत को संरक्षित किया ,शिव की विष्णु के एक साथ पूजा के लिए हरिहर के मूर्ति निर्माण का वर्णन मिलता है ,वहीँ अर्धनारीश्वर की पूजा का उल्लेख मिलता है।
इसी समय ब्रम्हा विष्णु और महेश की एक साथ समन्वय हुआ और त्रिमूर्ति की पूजा गुप्त काल में आरम्भ हुई
शिव भक्ति के अलावा सूर्य पूजा (जो दशपुर और अन्तर्वेदी के मन्दिरों से पता चलती है) इसी तरह शक्ति पूजा ,नागपूजा का उल्लेख मिलता है। अन्य शिला लेखों में कुबेर, वरुण,यम और इंद्र जैसे कुछ गौण देवताओं की उपासना का साक्ष्य मिलता है
शक्ति पूजा के उपासना के साक्ष्य उनके विभिन्न नामों कात्यायनी,पार्वती, भवानी,गौरी से सम्बंधित मन्दिरों में मिलता है,महिषासुर मर्दिनी और देवी भदार्या के भी मन्दिर विद्यमान थे ,उदयगिरि के एक गुफ़ा से मकर वाहिनी गंगा और और कूर्म वाहिनी यमुना की मूर्तियां मिलतीं हैं।
इस समय पूजा पद्धतियों में तीर्थयात्रा ,यज्ञ पूजा, ब्रत, दान ,और विभिन्न अनुष्ठान का वर्णन मिलता है।
ब्राम्हण धर्म के अलावा जैन और बौद्ध धर्म भी इस काल में विकसित हुए , इस समय बौद्ध धर्म का केंद्र मथुरा कौशाम्बी और सारनाथ में था ,महायान शाखा का प्रचार अधिक हो रहा था ,कश्मीर में बौद्ध धर्म अधिक पैर जमाये था , बौद्ध धर्म को व्यापारियों, शिल्पियों ने ने कई चैत्य और विहार बनवाये और बौद्ध मूर्तियों को बनवाया साँची लेख से जानकारी मिलती है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय के मंत्री आम्रकादव नामक बौद्ध भिक्षु को प्रशासन में जगह दी और साँची के बौद्ध विहार काकनादबोट के लिए दान दिया।
इस समय जैन धर्म छोटे से क्षेत्र में फैला हुआ था ,मथुरा और वल्लभी श्वेताम्बर जैन मत का केंद्र था और पुण्ड्रवर्धन दिगंबर सम्प्रदाय का केंद्र था ,व्यापारियों द्वारा इस धर्म को संरक्षित किया जाता था। कुमारगप्त प्रथम के काल में उदयगिरि गुहा में पार्श्व भाग में महावीर जैन की एक मूर्ति स्थापित की गई,इसी तरह स्कन्दगुप्त के काल में एक स्तम्भ में पांच तीर्थंकरों की मूर्तियां स्थापित की गईं।
गुप्तकालीन कला.....
गुप्तकाल से पहले के काल में कला के क्षेत्र में क्लासिकल मानदंड स्थापित किये क्लासिकल यानी इस काल की कला ने आने वाले समय की पीढ़ियों को प्रभावित किया और इस शैली को मॉडल बनाकर निरंतर विकसित किया,यदि क्लासिकल आदर्श की बात की जाए तो ये सिर्फ चित्रकला और मूर्तिकला में ही लागू होता है क्योंकि स्थापत्य कला में गुप्तकाल में मन्दिर निर्माण कला की शुरुआत ही हुई थी ,जहां पहले की कला बौद्ध चेतना से प्रभावित थी तो गुप्तकालीन कला में ब्राम्हणवादी तत्वों का प्रभाव दिखने लगता है इसीलिए अब गुहा निर्माण की जगह मन्दिर निर्माण ने स्थान ले लिया। इस काल में कुछ विशेष जगह में मन्दिर संरचनाएँ पाई गईं हैं परंतु इसका तात्पर्य ये नही कि बस इतने ही मन्दिर बन पाये थे गुप्त काल में , तो ऐसा संभव नही क्योंकि गुप्त काल में आर्थिक समृद्धता थी, और बहुत से मन्दिर रहे होंगे जो 1500 वर्ष बीत जाने पर जीर्ण शीर्ण अवस्था के बाद ख़त्म हो गए होंगे,कुछ मन्दिर लकड़ी के बने होंगे इसलिए धीरे धीरे खत्म हो गए कुछ मन्दिर मुस्लिम आक्रांताओं ने अलग अलग समय में मूर्तिपूजा के विरोध के कारण गिरा दिया होगा और कुछ मन्दिर घरों से जुड़े पूजा स्थल रहे होंगे जैसे आज मथुरा बृंदावन और काशी में देखते है ,ये मन्दिर समय बीतने के साथ घर का हिस्सा बन गए होंगे। कुछ मन्दिर में पत्थरों का प्रयोग हुआ तो कुछ मन्दिरों में पकाई गई ईंटो का प्रयोग हुआ था।कुछ मन्दिर पहाड़ों को काटकर बनाये गए और तराशे गए जैसे उदयगिरि का बराह मन्दिर ये मन्दिर ही गुहा विहारों और स्वतंत्र मन्दिरों के बीच के संक्रमण की अवस्था दिखाते हैं।
गुप्तकालीन मूर्तिकला में भी एक अलग विशेषताएं थीं जो पहले से चली आ रही कुषाण कालीन मूर्तिकला से कहीं अधिक संयत और शालीन थी इनमे कुषाण कालीन मूर्तिकला की तरह नग्नता और भड़कीलापन नही दिखता।
गुप्तकालीन मूर्तियों को वस्त्रों से ढका गया है , गुप्त काल की मूर्तिकला में हमे मन्द आभा मण्डल और भाव भंगिमा में विविधता दिखाई देती है,सारनाथ की मूर्ति गुप्त मूर्तिकला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
गुप्त काल में स्थापत्य ,मूर्तिकला एवं चित्रकला एवं अन्य विविध कलाओं का उत्थान हुआ इस काल की सबसे प्रमुख विशेषता भव्य मन्दिर निर्माण ,धर्म का गहरा सम्बन्ध स्थापत्य और मूर्तिकला से था भक्ति के सिद्धान्त के कारण भगवान की मूर्तियों को एक गर्भगृह में मन्दिर में स्थापित किया गया,गुप्त काल के अनेक मन्दिर आज भी देश के भिन्न भिन्न भागों में आपको दिख जायेंगे इनमे एक देवगढ़ (झाँसी ,ललितपुर) का दशावतार मन्दिर जो एक विष्णु मन्दिर है, तिगवा ,भूमरा, लाड़ खान ,साँची के मन्दिर ,भीतरगाँव का मन्दिर ,ये मन्दिर ईंटो और पत्थरों के बने हुए है इनमे साँची के चैत्य के बाईं तरफ बना मन्दिर सबसे पुराना गुप्त मन्दिर है, इन मन्दिर के चारो कोनों पर चार और आकार में मुख्य मन्दिर से छोटे मन्दिर बनते थे जो पंचायतन शैली कहलाती है इस शैली का प्रारंभिक मन्दिर दशावतार का विष्णु मंदिर , देवगढ़
ये मन्दिर अधिकांश विष्णु मन्दिर हैं ,जैसे भीतरगाँव का लक्ष्मण मन्दिर ,भीतरगाँव का ये मन्दिर पूरी तरह पकाई गई ईंटों से बना है ,इसमें एक शिखर है ,मन्दिर के प्रवेश द्वार में मेहराब (arch) का प्रयोग हुआ है ,जो विश्व में पहली बार मन्दिर में बनीं संरचना है, इस मन्दिर के आसपास विष्णु, राम, कृष्ण की आकृतियां ,देव ,गन्धर्व की आकृतियां टेराकोटा विधि से बनी हुई हैं।
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(भीतरगाँव का ईंट का मन्दिर) |
देवगढ़ का दसावतार मन्दिर, तिगवां का विष्णु मन्दिर , सिरपुर का लक्ष्मण मन्दिर ,एरण का वराह मन्दिर आदि, इनमें देवगढ़ का दसावतार मन्दिर श्रेष्ठ है, यह मन्दिर पंचायतन श्रेणी का है इसमें 12 मीटर ऊँचा शिखर था ,इस मन्दिर में चार बरामदे भी हैं ,जो चार -चार खम्भों की पंक्तियों पर स्थिति हैं इसके स्तम्भ में कृष्ण और राम के अवतार सुसज्जित हैं, मन्दिर के गर्भगृह के ऊपर एक शिखर है जो क्रमशः पतला होता हुआ एक शिखर में बदल जाता था,परंतु कई मन्दिर की छतें बिना शिखर की सपाट भी होती थीं, सामान्यता मन्दिर ऊँचे चबूतरे पर बनाये जाते थे और उस पर चढ़ने के लिए चारो तरफ़ से सीढियाँ बनाई जाती थी, मन्दिर में एक प्रवेश द्वार होता था इस प्रवेश द्वार पहले मन्दिर के प्रवेश द्वार से जुड़ा हुआ सभा भवन होता था बाद मन्दिर के प्रवेश द्वार से एक मण्डप का भी निर्माण किया जाने लगा।
इस प्रकार हम देखतें है की उस समय मन्दिर स्थापत्य की मुख्य विशेषताएं मन्दिर का बाह्य भाग ,तोरण द्वार,दहलीज, और स्तम्भ थीं।
इस समय के मन्दिरों का आंतरिक भाग सादा होता था ,जो गर्भगृह होता था ,उस गर्भ गृह में मुख्य प्रतिमा स्थापित होती थी और गर्भगृह के चारो ओर प्रदक्षिणा पथ स्थापित रहता था ,आगे चलकर गर्भ गृह के चारो तरफ़ अन्य देवताओं की प्रतिमा भी स्थापित होने लगी।
द्वार का बाहरी भाग गंगा और यमुना जैसी आकृतियों से सुसज्जित रहता था,जैसा की तिगवा के मन्दिर में पाया गया है,बाद के मन्दिरों प्रदक्षिणापथ भी जोड़ा जाने लगा जैसे नचना और भूमरा के मन्दिर में प्रदक्षिणा पथ पाया गया ।
इसी तरह गुप्तकाल में पृथक स्तम्भ भी मिलते हैं जैसेदिल्ली का लौह स्तम्भ और और 484 का एरण का पाषाण स्तम्भ।
इस काल में स्तूप , चैत्य और विहार का भी निर्माण हुआ, सारनाथ का धमेख स्तूप ( उत्तर प्रदेश के वाराणसी में) ,रत्नागिरी (उड़ीसा में ) और मीरपुर खान (सिंध) में पाये गए है इन गुफाओं के निर्माण में पुरानी परंपरा जारी रही शिलाखंड गुफाओं में अजंता और एलोरा ( महाराष्ट्र),बाघ (मध्य प्रदेश) तथा उदयगिरि (उड़ीसा) हैं , मन्दिरो के निर्माण में कई विशेषतायें थीं जैसे चपटी छत का वर्गाकार मन्दिर ,आयताकार मन्दिर, बृत्ताकार मन्दिर ,वक्ररेखीय शिखर युक्त वर्गाकार मन्दिर ।
इस काल में विष्णु की शेषशैय्या मूर्ति,शिव की विभिन्न रूपों में मूर्तियां ,इस काल में बुद्ध की मूर्तियां भी लुभावनी है जिसमें सारनाथ की बुद्ध की मूर्ति जो खड़ी मुद्रा में है ,ब्राम्हण धर्म की मूर्तियों में सबसे अच्छी मूर्ति उदयगिरि गुफ़ा के द्वार में बनी बारह की मूर्ति । यदि बात धातु मूर्तियों की करें तो गुप्त कालीन मूर्तिकारों ने "सिरे (cire) "प्रक्रिया द्वारा धातु मूर्तियों को ढालने की विधि जान ली थी , गुप्त कालीन बुद्ध की अठारह फिट ऊँची ताम्र प्रतिमा व सुलतान गंज की साढ़े सात फिट ऊँची प्रतिमा गुप्तकालीन कला के साथ धातु विज्ञान की उत्कृष्टता को दर्शाती हैं
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:गुप्त कालीन सिक्के: |
सुल्तानगंज से प्राप्त ताम्बे की बौद्ध प्रतिमा हो या बुद्ध मूर्तियों की विशेषता घुंघराले बाल , अलंकृत प्रभामण्डल उल्लेखनीय है , गुप्तकाल की एक घोड़े की मूर्ति उत्तरप्रदेश खैरीगढ़ मिली है जिस मूर्ति का वास्तविक घोड़े से बड़े आकार की है ।
गुप्त कालीन चित्रकला---
इस काल में चित्रकला में विशेष प्रगति हुई रेखाओं रंग भावों के चित्रण में कुशलता अर्जित कर ली गई थी अजंता और बाघ की गुफ़ा में सर्वोत्कृष्ट चित्र मिलतें हैं। अजंता की चित्रकला भित्ति चित्र नहीं है क्योंकि अजंता में चित्र को को सूखी दीवारों पर बनाया गया है जबकि भित्ति चित्र गीली दीवार पर बनाया जाता है। अजंता में फ्रेस्को और टेम्परा दोनों तकनिकी का प्रयोग चित्रण करने में हुआ,अजंता में 29 गुफाओं में वर्तमान में 6 गुफाओं में चित्र बचे रह गए है ये गुफाएं है , एक ,दो,नौ दस,सोलह और सत्रह नंबर की गुफाएं इनमे 16 और 17 गुप्तकालीन हैं इन सभी में बने चित्रों को जातक कथाओं से लिया गया है,गुफ़ा संख्या सोलह में बना चित्र मरणासन्न राजकुमारी का चित्र प्रशंशनीय है वहीँ गुफ़ा संख्या 17 को चित्रशाला कहा गया ,इस गुफ़ा में माता और शिशु के चित्र में मानव करुणा का बड़ा ही विश्वसनीय चित्र का चित्रण हुआ इस चित्र में माता यशोधरा अपने पुत्र राहुल को गौतम बुद्ध को समर्पित कर रहीं हैं।,इस गुफ़ा का निर्माण हरिषेण नामक सामंत ने करवाया था।
ग्वालियर के पास विंध्यपर्वत को काटकर बनाई गई ये गुफाएं बाघिनि नदी के किनारे स्थित है इन गुफाओं की खोज डेजरफील्ड नामक सैनिक ने 1818 में किया था,यहां पर 9 गुफाएं है इनमे गुफ़ा संख्या 2,4,5 से महत्वपूर्ण चित्रकारी के साक्ष्य मिलते है ये गुप्तकालीन है , हालाँकि ये सिद्ध करना कठिन है की बाघ के चित्रकला के विषय जातक कथाओं से लिए गए हैं या अवदान कथाओं से लिए गए हैं ,अजंता में जहां चित्रकला के विषय धार्मिक थे वहीं बाघ चित्रकला के विषय लौकिक जीवन से सम्बंधित थे।
इन गुफाओं में मनुष्य के लौकिक जीवन संबधी चित्रों को चित्रित किया गया है इस गुफ़ा में नृत्य संगीत के चित्र सर्वाधिक मिलते है ।
,बाघ की गुफ़ा संख्या चार व अजंता की सोलह, सत्रह,उन्नीस ,एक ,दो में और बादामी की गुफ़ा संख्या तीन में गुप्तकालीन चित्र देखे जा सकते हैं।
टेराकोटा की मूर्तियां भी धार्मिक कार्यों में प्रयोग की जाती थीं विष्णु , कार्तिकेय, सूर्य , दुर्गा कुबेर नाग आदि देवताओं की मूर्तियां मिलती हैं , अहिछत्र , राजगढ़ ,पहाड़पुर , भीटा , बसाढ़ , कौसंबी प्राप्त लाल मृदभांड के अवशेषों से गुप्तकालीन मृदभांड का पता चलता है। इन मूर्तियो में गंगा जमुना की मुर्तिया है कुछ मूर्तियां कार्तिकेय तथा अन्य देवी देवताओं की हैं , जटाजूट धारी शिव की भी मृण्मूर्तियां मिलीं हैं।
गुप्तकाल में साहित्यिक विकास.......
गुप्तकाल शिक्षा साहित्य का काल था समुद्रगुप्त स्वयं एक कविराज के रूप में प्रसिद्ध था उसके दरबार का मुख्य कवि हरिसेण था।
समय कई संस्कृत में ग्रन्थ लिखे गए , गुप्त काल में पाणिनि की अष्टाध्यायी तथा पतंजलि के महाभाष्य पर आधारित संस्कृत व्याकरण का विकास हुआ,अमरकोष की रचना अमरसिंह ने किया है, बंगाल के एक विद्वान चन्द्रगोमिन ने चन्द्र व्याकरण की रचना की ।
कई शिक्षा के केंद्र थे नालंदा महाविहार था ,काशी, मथुरा, वल्लभी, उज्जैनी प्रमुख़ केंद्र था ,महाभारत और रामायण अंतिम रूप से इसी समय लिखी गई, महाकवि कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्शीयम ,मालविकाग्निमित्रम् मेघदूत ,कुमार सम्भव ,रघुवंश, शूद्रक की मृक्षकटिकम, विशाखदत्त की मुद्रा राक्षस और देवीचंद्र गुप्तम, वात्सायन का कामसूत्र ,भास की स्वप्न वासव दत्ता, अमरसिंह की अमरकोष, विष्णुशर्मा की पंचतंत्र, आर्यभट्ट की आर्यभट्टीय, बराहमिहिर बृहत्संहिता आदि ग्रन्थों ने गुप्तकालीन साहित्य को समृद्ध किया, इसी काल में विभिन्न पुराणों स्मृतियों की रचना की इस काल में हरिषेण ने प्रयाग प्रशस्ति की रचना की तो बासुल ने मन्दसौर प्रशस्ति की रचना की । इस प्रकार गुप्तकाल धार्मिक दृष्टि से ही नही बल्कि लौकिक दृष्टि से भी परिपक्व था। इस काल में संस्कृत साहित्य को दरबारी संरक्षण मिला , किन्तु जनसामान्य की भाषा के रूप में प्राकृत को महत्व मिला,इस बात को इस तथ्य से अनुमान लगाया जा सकता है की महत्वपूर्ण साहित्यिक कृतियों में उच्च पात्रों को संस्कृत में बोलते दरसाया गया है तो वहीं महिलाओं और शूद्रों को प्राकृत भाषा में बोलते दर्शाया गया है।
गुप्त काल में षडदर्शन का विकास हुआ , इसी समय सांख्य, न्याय ,वार्तिक, जैमिनीय सूत्र की रचना हुई , इस समय महायान बौद्ध धर्म के अंतर्गत भी विभिन्न दार्शनिक विचारधारा पनपीं और नवीन धार्मिक सम्प्रदायों का विकास हुआ।न्याय तर्क और प्रमाणवादी धारा का चिंतन था ,जो मुख्य रूप से अक्षपाद गौतम के सूत्रों पर आधारित था,अक्षपाद गौतम का जीवन काल शायद ईस्वी सन् के प्रारंभिक काल में पड़ता है,इसके मुख्य प्रतिपादक पक्षिल स्वामी वात्सायन का जीवन काल चौथी सदी ईस्वी में माना जाता है,वैशेषिक न्याय का अनुपूरक था लेकिन इससे पुराना यह एक प्रकार भौतिकवादी दर्शन था ,इस दर्शन के प्रतिपादक उलूक कणाद थे। सांख्य दर्शन में पचीस मुख्य सिद्धान्त थे सांख्य दर्शन प्रकृति और पुरुष के सिद्धान्त पर आधारित था ,इस से जुड़ा एक ग्रन्थ इश्वर कृष्ण द्वारा लिखा सांख्यकारिका था । इसी तरह योग दर्शन दूसरी सदी ईशा पूर्व के महर्षि पतंजलि ने की थी लेकिन योग सूत्रों को संसोधित और परिवर्धित किया ब्यास ने ये महर्षि के सात सदी बाद जन्मे ,इसी तरह मीमांसा दर्शन वेदों की व्यख्या पर आधारित था इस दर्शन के प्रारंभिक कृति जैमिनी ( छठी सदी ई.पू. में माने जाते हैं) लेकिन मीमांसा दर्शन के सबसे बड़े विचारक शबरस्वामी थे जो छठी सदी के आसपास थे। वेदांत या उत्तरमीमांसा जो वेदों के मुख्य सिद्धान्त थे इनके विचारक बादनारायन थे और एक अन्य चिंतक वेदांत दर्शन के अन्य एक और चिंतक जो छठी सदी में थे वो थे गौडपाद।
जैसे नाटकों की रचना की शूद्रक ने मृक्षकटिकम एवं विशाखदत्त एवं मुद्रा राक्षस नामक ग्रन्थ लिखा------,कामसूत्र वात्सायन ने लिखा, पंचतंत्र विष्णु शर्मा ने लिखा आर्यभट्टीय आर्यभट्ट ने लिखा। पुराण को अंतिम रूप से गुप्त काल में ही पूरा किया , इनकी रचना मूलतः चारणों ने गायन विधि में किया पर बाद में पुराणों का पुनर्लेखन संस्कृति में किया , इनका लेखन भविष्य वाणी के रूप में हुआ।
बौद्ध साहित्य -
प्रारंभिक बौद्ध ग्रन्थ पाली में लिखे गए जो बाद में संस्कृत भाषा में भी लिखे गए , गुप्त काल के मुख्य लेखक आर्यदेव थे , दिग्नाथ भी ने भी कई ग्रन्थ लिखे । जैन धर्म की पुस्तकें लिखी गईं जो प्रारम्भ में प्राकृत भाषा में लिखीं गईं जो बाद में इसका माध्यम संस्कृत हो गया ।
गुप्त कालीन विज्ञान एवं तकनीक------
गुप्त काल में विज्ञान तकनीक का भी विकास हुआ सबसे अधिक प्रगति गणित और ज्योतिष क्षेत्र में हुई ,पृथ्वी गोल है और अपने धुरी में घूमती है इस सिद्धान्त की खोज आर्यभट्ट ने उस समय कर दी थी ,बारहमिहिर ने ज्योतिष के महत्वपूर्ण सिद्धान्त बनाये , ज्योतिष विज्ञान सम्बंधी पुस्तके जैसे पञ्च सिद्धान्तिका, बृहद् जातक ,लघुजातक लिखे ,फलित ज्योतिष पर कल्याण वर्मन ने सारावली नामक ग्रन्थ लिखा।
नागार्जुन ने विभिन्न धातुओं के बारे में जानकारी दी धातुओं के प्रयोग से चिकित्सा के उपाय बताये, आयुर्वेदः की चिकित्सा शास्त्र के विद्वान धन्वन्तरि थे इस काल में। धातु विज्ञान या धातुओं के मिक्सिंग जिसे मेटलरजी भी कहते हैं।
इस प्रकार ये मालूम होता है कि गुप्तकाल में साहित्यिक , वैज्ञानिक, वास्तुकला , गणित आदि क्षेत्रों में बेहद प्रगति हुई।
गुप्त काल की अर्थव्यवस्था के बारे में जाने इस पोस्ट से----
गुप्त काल की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था कैसी थी?
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