के सी एस पंनिकर का जन्म 30 मई सन1911 को केरल के कोयंबटूर नामक स्थान पर हुआ था ,इनके पिता चिकित्सक थे और इनको भी चिकित्सा के क्षेत्र से जोड़ना चाहते थे,परंतु पणिकर डॉक्टरी पेशे में नहीं आना चाहते थे उनका मन कलाकार एक आर्टिस्ट बनना चाहता था,बचपन से ही उनकी प्राकृतिक दृश्यों में रुचि थी
पांच वर्ष तक इन्होंने एक बीमा कम्पनी में तथा तार विभाग में भी कार्य किया ,परंतु अपने अंदर कलाकार बनने की चाहत ने उनको उस कार्य को छोड़ना पड़ा तब 1936 में उन्होंने कला की शिक्षा प्राप्त करने के लिए मद्रास स्कूल ऑफ आर्ट्स में प्रवेश लिया यहां पर उनके कला में विशेष प्रवीणता के कारण छै वर्षीय पाठ्यक्रम में सीधे तीसरे साल में प्रवेश दे दिया गया ,इस समय मद्रास स्कूल ऑफ आर्ट्स में देवी प्रसाद राय चौधरी प्रिंसिपल थे ,उनके ही निर्देशन में पणिकर ने दक्षता के साथ डिप्लोमा प्राप्त किया ।
उन्होंने डिप्लोमा परीक्षा में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया
डिप्लोमा लेने के बाद यहीं पढ़ाने भी लगे यहां पर धीरे धीरे प्रमोट होते गए पहले अध्यापक बने फिर 1955 में उपप्राचार्य बने बाद में 1957 में प्राचार्य बन गए ,पणिकर के कार्यकाल में मद्रास स्कूल ऑफ आर्ट्स में नया आयाम बनाया इसका नाम भारत के प्रमुख कला केंद्रों में गिना जाने लगा।
1928 से 1930 के मध्य मद्रास स्कूल सोसाइटी के अखिल भारतीय प्रदर्शनी में भाग लिया,1955 में मद्रास ललित कला आकदमी के सदस्य भी नियुक्त किये गए।
पणिक्कर के सहयोग से मद्रास के कलाकारों ने 1960 में प्रोग्रेसिव पेंटर्स एसोसिएशन की स्थापना की थी।इन कलाकारों ने एक कला पत्रिका भी निकाली।
पणिक्कर के सहयोग से मद्रास के 40 कलाकारों ने 1966 में चोलमण्डल सागर तट में कलाकारों के एक ग्राम की स्थापना की,ये एक अनूठा विद्यालय था,यहाँ कलाकार पूर्णतया अपनी इच्छा से आज़ादी से चित्रकारी करता है साथ मे सामूहिक प्रबंधन से इस गांव को चलाता है,1967 में पणिक्कर ने कला विद्यालय से अवकाश ले लिया।
1940 से 1957 तक पणिक्कर ने आकृति प्रधान आकृतियों का सृजन किया, पणिक्कर ने अपनी कृतियों में जीवन और समाज के अपने अनुभवों को पिरोया इनके चित्रों में व्यंग भी दिखाई पड़ता है।इनके चित्रों में रंग संगतियों,प्रतीकों ,रेखाओं के समन्वयात्मक सहज सौंदर्य आने लगा।इन्होंने अलंकारिकता को महत्व नही दिया बल्कि अपने चित्रों में लोक कला के विविध पहलू उनके चित्रों में दिखने लगे।
मुखाकृतियों को बड़े आकार तथा तिरछी भंगिमा में अंकित करना पणिकर की एक खास पहचान है।
उनके चित्रण की विशेष शैली में आकृति के बड़े चेहरे में बड़ी बड़ी आंखें ,मत्स्याकार आंखें ,पुतलियां कटाक्ष की ओर चित्रित की गईं है , चेहरे और उनकी तुलना में हाँथ - पैर बहुत छोटे बनते थे,इनके अनेक चित्रों में मुखाकृतियों कई तुलना में शरीर बहुत छोटे अंकित किये गए हैं। बसंत,काली लड़की ,पतिता और ईव नामक चित्रों में इस तकनीकी का इस्तेमाल किया गया है।
उनके चित्रों में लोक जीवन की झलक मिलती है।
1960 में उनकी शैली में खास बदलाव आया और अब उनके चित्रों में तांत्रिक कला दिखाई देने लगी।
उनके चित्रों में ज्यामितीय आकृतियां,साथ मे कई भाषा लिपि के चिन्ह पाए जाते हैं,जो किसी रहस्यात्मक तंत्र साधना वाली पुस्तक के पृष्ठ के तरह दिखते हैं,वो कहीं कहीं हल्के रंगों में कुछ क्षेत्र बना दिया करते थे और उसके आसपास ज्यामितीय चित्र बनाकर उसके आसपास आड़ी ,तिरछी बारीक रेखाओं में कुछ लिपि चिन्ह बना देते थे।
आदम और हौवा,ईसा ,बसंत तथा बर्ड्स एंड सिम्बल सीरीज आदि पणिकर की प्रसिद्ध कृतियाँ है उनके चित्र "धन्य है शांति दूत में" उनका चित्र है इस चित्र में अजंता और सित्तनवासल के समान विशाल संयोजन किया गया है।इनकी कला में कहीं कहीं फाव कला आंदोलन का प्रभाव दिखाई देता हैं।
प्रदर्शनियां---- इनके चित्रों की प्रथम प्रदर्शनी सन 1926 में फाइन आर्ट्स सोसाइटी मद्रास की अखिल भारतीय प्रदर्शनी के साथ हुआ,1928 और व 1930 के बीच उन्होंने मद्रास आर्ट सोसाइटी में भाग लिया।
टोकियो ,लंदन, जापान,तुर्की,मैक्सिको में आपके चित्रों को प्रतिनिधित्व मिला।
पुरस्कार------
1938 में उन्हें फाइन आर्ट सोसाइटी के पुरस्कार मिला।
सत्तर के दशक में रत्न सदस्यता से सम्मानित किया गया।
कोलकाता ,चेन्नई,कोडाइकनाल में स्वर्ण पदक प्राप्त किये।
आधुनिक कला आंदोलन में उनकी महती भूमिका देखते हुए अकादमी ने उन्हें रत्न सदस्यता फैलोशिप से सम्मानित किया।
संग्रह----
पणिक्कर के चित्र राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय नई दिल्ली ,राष्ट्रीय कला संग्रहालय मद्रास,मैसूर के कला संग्रहालय में संग्रहीत हैं।
1967 में इन्होंने मद्रास कला के प्राचार्य पद से अवकाश ले लिया,उन्होंने हस्त शिल्प कला के लिए बहुत अधिक प्रयास किये उन्होंने वस्त्राभूषणों में कलात्मकता का समावेश किया,उन्होंने हस्तशिल्प संघ की स्थापना की ,धीरे धीरे इस संघ के द्वारा किये गए कार्यों का विस्तार हुआ। उनके द्वारा बनाई गई हस्तशिल्प कलाकृतियों का विदेश में निर्यात होने लगा। निर्यात से प्राप्त राशि से ही कुछ कलाकारों ने चेन्नई में महाबलीपुरम राजमार्ग में जमीन खरीदकर चोलमण्डल ग्राम की स्थापना की
मृत्यु--
अपनी मृत्यु के कुछ समय पूर्व उन्होंने अपने पचास कलाकृतियों को केरल की जनता को सौंप दिया,1977 में लंबी बीमारी के बाद इन महान कलाकार की मृत्यु हो गई।
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