बहज (डीग, राजस्थान) उत्खनन: वैदिक काल के भौतिक प्रमाणों की खोज और सरस्वती नदी से जुड़ी एक प्राचीन सभ्यता

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 राजस्थान के डीग जिले के बहज  गांव में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा 10 जनवरी 2024 से लगभग 5 महीने तक खुदाई की गई। क्योंकि बताया गया था पौराणिक आख्यानों के अनुसार यहां श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के पुत्र वज्रनाथ ने पुनः एक व्रज नगरी बसाई थी और कई मंदिर और महल बनवाए थे। राजस्थान के डीग जिले के बहज गांव में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अधीक्षण पुरातत्वविद् विजय गुप्ता के निर्देशन में खुदाई का कार्य किया गया। बहज नामक ये स्थल डीग कस्बे से पांच किलोमीटर दूर है और भरतपुर शहर से 37 किलोमीटर दूर वहीं मथुरा शहर से 23किलोमीटर दूर है। डीग जिले के बहज गांव में हुए उत्खनन के निष्कर्ष भारतीय पुरातत्व के लिए निश्चित रूप से बहुत महत्वपूर्ण हैं, खासकर वैदिक काल के संदर्भ में।     डीग जिले के बहज गांव में हुए उत्खनन में 3500 से 1000 ईसा पूर्व की सभ्यता के अवशेष मिले हैं, जिनमें एक महिला का कंकाल, चांदी और तांबे के सिक्के, हड्डी के औजार, अर्ध-कीमती पत्थरों के मनके, शंख की चूड़ियाँ, मिट्टी के बर्तन, 15 यज्ञ कुंड, ब्राह्मी लिपि की मोहरें और शिव-पार्वती की मूर्तियाँ...

निकोलस रोरिक आर्टिस्ट की जीवनी

निकोलस रोरिक आर्टिस्ट की जीवनी:

निकोलस रोरिक रूस के एक प्रसिद्ध आर्टिस्ट और साहित्यकार दार्शनिक थे जिन्होंने अपने जीवन मे विश्व के कई देशों का भ्रमण किया और अंतिम जगह हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में  एक स्थान पर अपना अंतिम पड़ाव डाला और यही इनकी मृत्यु भी हुई ।
     इनका जन्म सेंटपीटर्सबर्ग USSR (  सोवियत रुस ) में 9 अक्टूबर 1874 को हुआ था,इनके माता पिता रशियन मूल के ही थे।
निकोलस रोरिक आर्टिस्ट की जीवनी


 शिक्षा---

इन्होंने 1853 में सेंटपीटर्स बर्ग विश्विद्यालय और इम्पीरियल अकादमी में एक साथ दाखिला लिया और 1897 में आर्टिस्ट की डिग्री प्राप्त की तो 1898 में लॉ की डिग्री प्राप्त की।
  इन्होंने शिक्षा प्राप्ति के बाद इम्पीरियल सोसाइटी ऑफ आर्ट ग्रुप में प्रारंभिक शिक्षण कार्य किया 1906 से1917 तक  इस सोसाइटी के लिए सेवा दी।
     इनकी प्रारम्भिक रुचि आर्कियोलॉजी तथा स्टेज डिजाइनिंग में थी,उन्होंने कई थियेटर के रंगमंच साजसज्जा में ख्याति प्राप्त की।
     इसी समय ये अपने पत्नी से प्रभावित होकर भारत के धर्म और दर्शन को जाने में रुचि जगाई ,उन्होंने रामकृष्ण परमहंस ,विवेकानंद के दर्शन तथा भगवतगीता के दर्शन को जाना समझा। साथ मे वो पश्चिमी योग विद्या थियोसोफी से भी प्रभावित हुए।
      1917 में हुई रशियन क्रांति से प्रभावित नहीं हुए,परंतु इस क्रांति के समय जब साहित्य और कला में कुठाराघात हुआ तो वह अपने पत्नी तथा दो बच्चों जार्ज तथा श्वेतोसोलोव के साथ फिनलैंड चले गए वहां कुछ महीनों के प्रवास के बाद 1919 के मध्य लंदन स्थान्तरित हो गए लंदन आकर वो थियोसोफिकल सोसाइटी से जुड़ गए।1923 में रोरिक न्यूयार्क अमेरिका आ गए वहां पर उन्होंने "फ्लेमिंग हार्ट " और "क्राउन ऑफ द वर्ल्ड" स्थापित किया जिनका उद्देश्य दुनियाभर के कलाकारों को एकजुट करना था। उन्होंने अमेरिका में रोरिक संग्रहालय की स्थापना की।
   
        1925 से 1929 तक का रोरिक का अपने छः दोस्तों के साथएशियाईअभियानहुआ,जिसमेउन्होंनेकश्मीर,लद्दाख,कराकोरम,काशगर,उरमुची,और अल्ताई पर्वत मंगोलिया तक भ्रमण किया ,इस अभियान में तिब्बत में जासूसी के शक में तिब्बती अधिकारियों ने नजरबंद कर दिया ,यहां पर इनके छै साथी मारे गए ।1928 में तिब्बती अधिकारियों ने भारत मे एक निश्चित में बसने का हवाला देकर छोड़ा।
तब वह हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के "नग्गर" नामक स्थान में बस गए।
   यहां पर इन्होंने हिमालय रिसर्च अनुसंधान संस्थान की स्थापना की।
       इनको नोबल पदक के लिए तीन बार 1929,1932,1935 में नामांकित किया गया पर अंतिम शॉर्टलिस्ट में उनका नाम हट गया।
मंचूरिया अभियान अमेरिकी कृषि विभाग की सहायता से 1934 में शुरू किया,इस अभियान का उद्देश्य मंचूरिया के मिट्टी का,बीजों का अध्य्यन करना था।

 रोरिक की कला--

रोरिक को प्राचीन ,मध्यकालीन पूर्वी  संस्कृति, मध्य युगीन यूरोपियन संस्कृति तथा स्कैण्डिनेवियन कला से प्रेम था ,इन्होंने इनके विषय मे अनेक लेख लिखे,उनके लिखे 27 ग्रंथ उपलब्ध हैं,रोरिक ने बड़े आकार के भित्ति चित्रों ,पैनल चित्रण और मणिकुट्टीटम चित्रों की रचना की ।
अपने युग के महान वास्तुकारों  के साथ इन्होंने भवन निर्माण के साथ कला का समन्वय  में आने वाली बाधाओं पर भी रिसर्च किया। साथ मे आधुनिक भवनों के निर्माण के बाद इन निर्मित भवनों के लिए  भित्ति चित्र बनाये,मणि कुट्टकम , तथा पैनल चित्र बनाये।
 उन्होंने सेंटपीटर्सबर्ग में एक भवन में विशाल भित्ति चित्र बनाया  इस भित्ति चित्र के प्रभावकारी रंगों ने सभी का ध्यान खींचा।
     रोरिक ने  सन 1912 के आसपास रूसी थिएटर में नाट्यमंचों के अलंकारिक   साजसज्जा में  योगदान दिया ,उन्होंने वहां के बैल नृत्य के साथ संगीत चित्र और अभिनय का समन्वय  रूप नाट्यकर्मियों के सामने प्रस्तुत किया इसका प्रयोग दुनिया भर के नाट्यकर्मियों के किया।
   प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुई पीड़ा से उनके चित्रों का विषय धार्मिक और सामाजिक पीड़ा थी ।
  1928 में कुल्लू के" नग्गर" जगह में बसने के बाद जीवन के अंतिम 19-20 वर्ष यहीं व्यतीत किया।
इस अवधि में हिमालय के प्राकृतिक दृश्यों को ही अपने चित्रों को आधार बनाया,अरुणोदय,सूर्यास्त,कुहरा, तेज धूप ,और चान्दनी रात्रि में उन्होंने हिमालय की विभिन्न स्थितियों तथा स्थानों के अनेक चित्र बनाये। ये चित्र उनकी आध्यात्मिक अनुभूति को प्रकट करते थे जिनके माध्यम से वो ब्राम्हण की परम शक्ति तक पहुंचना चाहते थे, इन चित्रों में नीला रंग अनंत आसमान के रूप में सदैव रहता था,अन्य रंगों में श्वेत ,गुलाबी,बैगनी,हरितमणि के विविध बलों का प्रयोग है,इन रंगों को उन्होंने ब्रम्हांडीय रंग की संज्ञा दी।
   कलाकार ने प्रकृति की शक्तियों को जीवंत रूप में देखा और अपनी कलाकृतियों  में इन्हें पिरोया।
        रोरिक की कला भारत के सांस्कृतिक जीवनका अभिन्न अंग बन गई,चूंकि इनके आध्यात्मिक प्रतीकता के साथ हिमालय का अंकन ,उनकी हर जगह प्रशंसा हुई और अनेक कलाकार ,वैज्ञानिक,राजनीतिज्ञ उनका सम्मान करने लगे,रवींद्रनाथ टैगोर,जवाहर लाल नेहरू आदि राजनीतिज्ञ उनसे मिलने पहुंचते थे।

 मृत्यु-----

15 दिसंबर 1947 को 73 वर्ष  की आयु में निकोलस रोरिक की मृत्यु हो गई।


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