अतुल डोडिया: भारतीय समकालीन कला का एक चमकता सितारा

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अतुल डोडिया: भारतीय समकालीन कला का एक चमकता सितारा प्रारंभिक जीवन और शिक्षा अतुल डोडिया का जन्म 1959 में भारत के मुंबई (तत्कालीन बॉम्बे) शहर में हुआ था। एक मध्यमवर्गीय गुजराती परिवार में जन्मे अतुल का बचपन साधारण किंतु जीवंत माहौल में बीता। उनका परिवार कला से सीधे जुड़ा नहीं था, परंतु रंगों और कल्पनाओं के प्रति उनका आकर्षण बचपन से ही साफ दिखने लगा था। अतुल डोडिया ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मुंबई के स्कूलों में पूरी की। किशोरावस्था में ही उनके भीतर एक गहरी कलात्मक चेतना जागृत हुई। उनके चित्रों में स्थानीय जीवन, राजनीति और सामाजिक घटनाओं की झलक मिलती थी। 1975 के दशक में भारत में कला की दुनिया में नया उफान था। युवा अतुल ने भी ठान लिया कि वे इसी क्षेत्र में अपना भविष्य बनाएंगे। उन्होंने प्रतिष्ठित सर जेजे स्कूल ऑफ आर्ट, मुंबई से1982 में  बैचलर ऑफ फाइन आर्ट्स (BFA) की डिग्री प्राप्त की। यहाँ उन्होंने अकादमिक कला की बारीकियों को सीखा, वहीं भारतीय और पाश्चात्य कला धाराओं का गहरा अध्ययन भी किया। 1989से1990 के साल में, उन्हें École des Beaux-Arts, पेरिस में भी अध्ययन का अवसर मिला।...

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जीवनी Biography of Pandit Deendayal Upadhyay

 दीनदयाल उपाध्याय की जीवनी --

Biography of Pandit Deendayal Upadhyay---

प्रस्तावना-- 

दीनदयाल उपाध्याय भारतीय पॉलिटिशियन,संगठनकर्ता और एक सामाजिक चिंतक थे,उन्होंने हिंदुत्व के विचारधारा को आगे बढ़ाया उनके  संघर्षपूर्ण सादे जीवन यापन और राष्ट्र के लिए चिंतन संघर्षपूर्ण जीवन से न सिर्फ हिंदुत्व को धार दी बल्कि एक जनमानस में उनका पड़ा।

भारत के महान विचारकों,राष्ट्रवादियों और समाज सुधारकों में से एक थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय,वे भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में से एक थे वे एकात्म मानव वाद के प्रणेता थे जो भारतीय संस्कृति ,समाज और राजनीति के विकास के लिए मौलिक दर्शन था। उनका जीवन भारतीय समाज के उत्थान और राष्ट्रवाद के प्रचारप्रसार के लिए समर्पित था ।उनका राजनीतिक,सामाजिक और वैचारिक योगदान भारतीय राजनीति में अमिट छाप छोड़ चुका था।

 दीनदयाल उपाध्याय का बचपन--

      पंडित  दीनदयाल उपाध्याय का जन्म सितंबर 1916  को मथुरा जिले के एक गांव नगला चंद्रभान में हुआ था,दीनदयाल उपाध्याय को बचपन से ही अत्यधिक संघर्ष करना पड़ा।यद्यपि दीनदयाल उपाध्याय के पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय रेलवे में जलेसर में सहायक स्टेशन मास्टर थे,तथा उनकी माता रामप्यारी एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं।  दीनदयाल एक छोटे भाई शिवदयाल थे जो उनसे दो वर्ष छोटे थे। दीनदयाल के बाबा का नाम हरिराम उपाध्याय था जो एक ज्योतिषी थे। उन्होंने उनकी जन्म कुंडली देखकर बताया था कि ये बालक अपने जीवन मे अत्यधिक यश प्राप्त करेगा और अविवाहित रहेगा। 
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जीवनी


     दीनदयाल उपाध्याय जब तीन वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया ,तब उनकी माता अपने दोनो  पुत्रों  के साथ अपने मायके आ गईं ,जहां पर उनके नाना पंडित चुन्नी लाल के संरक्षण में दोनो भाइयों का पालन पोषण हुआ। परंतु पिता के मृत्यु के कुछ दिन बाद दीनदयाल की माता बीमार रहने लगीं और बीमारी बढ़ने पर उनका भी निधन हो गया उस समय दीनदयाल की उम्र सिर्फ सात साल की थी।
    तब वह पूरी तरह अपने नाना पर आश्रित हो गए ,कुछ दिन सब ठीक रहा पर जब दीनदयाल दस वर्ष के हुए तब उनके नाना का भी निधन हो गया ,यद्यपि उनके साथ उनके मामा ही थे जो उनकी देखभाल करत रहे  परंतु जब वह  18 साल के थे और इंटरमीडिएट में थे तब उनके छोटे भाई शिवदयाल का भी निधन हो गया। दीनदयाल अपने भाई की असामयिक मृत्यु से अत्यधिक दुःखी हुए।पर वह ख़ुद को अंदर से मजबूत रखा।उनके ममेरे भाई बहन अभी भी थे उनका साथ देने के लिए। 

दीनदयाल उपाध्याय की शिक्षा-- 

     दीनदयाल उपाध्याय ने अपने पढ़ाई के प्रति सदैव समर्पित रहे, अनेक झंझावातों के बाद भी पढ़ाई जारी रखी कोई ब्रेक नहीं लिया।
दीनदयाल बचपन से कुशाग्र बुद्धि के थे वह अपने विषय को जल्द समझ लेते थे और कंठस्थ कर लेते थे।  उनकी प्रारंभिक शिक्षा मामा के घर में  सीकर राजस्थान में हुई ।बाद में वे गवर्नमेंट हाई स्कूल, अजमेर में पढ़ने गए, जहाँ वे पढ़ाई में अत्यंत मेधावी थे।उन्होंने हाईस्कूल परीक्षा में मेरिट में उच्च स्थान अर्जित किया।इसके कारण महाराजा सीकर ने उनको गोल्ड मेडल प्रदान किया,उनको पुस्तकें खरीदने के लिए 250 रुपये अनुदान में दिए तथा दस रुपये मासिक का वजीफ़ा प्रदान किया।
 इसके बाद उन्होंने पिलानी (हरियाणा )से इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की ।
 इसके बाद वह  उच्च शिक्षा कानपुर के  सनातन धर्म (एस. डी.) कॉलेज  गए  जहां उन्होंने हिंदी ,अंग्रेजी और संस्कृत में अत्यधिक रुचि दिखाई  और  1939 में  बी.ए.की परीक्षा  प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की ।
     स्नातक की शिक्षा ग्रहण करने के दौरान उनकी मुलाकात सुंदर सिंह भंडारी तथा बलवंत महासिंघे हुई,जो पहले से RSS से जुड़े हुए थे और समाजसेवा में भी लगे थे ,तब उनसे प्रभावित होकर उन्होंने भी देश सेवा का मन बनाया।
इसी स्नातक शिक्षा के दौरान 1937 में वह RSS के फाउंडर केशव बलिराम हेडगेवार से  मिलने का अवसर मिला और RSS के प्रति अपनी निष्ठा जाहिर की।
 इस तरह दीनदयाल उपाध्याय 1937 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए।
      बाद में  सन 1939 में मास्टर की डिग्री के लिए उन्होंने आगरा के सेंट जॉन्स में अंग्रेजी विषय से प्रवेश लिया परंतु दुर्भाग्यवश उनकी ममेरी बहन के अचानक अत्यधिक बीमार पड़ जाने के कारण वह उनकी सेवा में लगे रहे और एम.ए. फाइनल की परीक्षा नहीं दे पाए और उनका स्नातकोत्तर अधूरा रह गया।
     दीनदयाल उपाध्याय एक बार सिविल सेवा की परीक्षा में भी बैठे और सफ़ल हुए इस दौरान वह सिविल सेवा की परीक्षा कक्ष में धोती कुर्ता पहनकर परीक्षा देने गए तब अन्य परीक्षार्थियों ने आश्चर्य प्रकट किया और पंडित जी के नाम से संबोधन करने लगे तब से दीनदयाल को लोग पंडित दीन दयाल उपाध्याय के नाम से ही जानने लगे। बाद में वह सिविल सर्विसेज के लिखित परीक्षा में पास भी हो गए और साक्षात्कार में बुलावा भी आया पर उन्होंने राष्ट्र सेवा का संकल्प लेकर साक्षात्कार देने ही नहीं गए। बल्कि उन्होंने प्रयागराज से  एल. टी. की परीक्षा पास की।
         1942 में अपनी शिक्षा प्राप्त करने के बाद दीनदयाल उपाध्याय ने कोई  नौकरी नहीं प्राप्त की न ही विवाह किया बल्कि संघ से प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए चालीस दिवसीय शिविर में हिस्सा लेने के लिए नागपुर प्रस्थान किया।
    वहां से प्रशिक्षण लेने के उपरांत दीन दयाल उपाध्याय ने फुल टाइम वर्कर के रूप में काम शुरू किया,उपाध्याय जी ने दूसरे वर्ष भी RSS के प्रशिक्षण में भाग लिया,और बाद में वह लखीमपुर खीरी जिले में प्रचारक बनाये गए।बाद में वह 1955 में प्रान्त प्रचारक बनाये गए।संघ के प्रचारक के रूप में उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में कार्य किया और भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों के बीच समरसता और संगठन का संदेश फैलाया। देश भर में संघ की शाखा विस्तार के लिए कार्य किया।

पत्रकारिता और लेखन-- 

दीनदयाल उपाध्याय भाऊरस देवरस के प्रभावित होकर लखनऊ में ' राष्ट्रधर्म' पत्रिका का प्रकाशन की शुरुआत की  साथ मे पाक्षिक "पांचजन्य" पत्रिका का संपादन में भी भागीदार रहे। वह प्रकाशन संबधी अन्य सहायक कार्य भी करते रहे। पांचजन्य और राष्ट्रधर्म पत्रों के द्वारा हिंदुत्व की विचारधारा को धार देना था और राष्ट्र चेतना जागृत करने  वाले लेख लिखे। उनका मानना था कि भारत की राजनीति और समाज को भारतीय मूल्यों पर आधारित होना चाहिए ,न कि पश्चिमी विचार धारा से प्रभावित होना चाहिए। दीनदयाल उपाध्याय ने 1946 में रात भर जागकर चंद्रगुप्त नामक नाटक को लिखते रहे।

 दीनदयाल उपाध्याय का राजनैतिक जीवन--

        इधर 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने गोलवरकर  गुरु जी से  सहमति लेकर भारतीय जनसंघ की स्थापना अक्टूबर 1951 में की। 23 जून 1953 को श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु जम्मू कश्मीर में हो गई। बाद में जनसंघ की जिम्मेदारी दीनदयाल उपाध्याय के हाँथ में आ गई। उन्हें जनसंघ के महासचिव बनाया गया।
 1963 में  जौनपुर से MP ब्रम्ह जीत सिंह के निधन के बाद रिक्त हुई सीट पर मध्यावधि चुनाव हुए तब जनसंघ की तरफ से उन्हें प्रत्याशी घोषित किया गया। बाद में उनके नेतृत्व में जनसंघ ने 1967 तक जनसंघ को 35 सीट प्राप्त हुई और तीसरी बड़ी पार्टी बनकर उभरी। उनके नेतृत्व में जनसंघ ने कई राज्यों में सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की।
  दीनदयाल उपाध्याय को  1967 के कालीकट के अधिवेशन में  उन्हें  जनसंघ पार्टी का प्रेजिडेंट बनाया गया। उन्होंने सिर्फ इस पद को दो महीने तक धारण किया कि इसी बीच मुग़ल सराय स्टेशन में संदिग्ध परिस्थितियों में उनका शव पटरियों के पास मिला।

दीनदयाल उपाध्याय का जीवन दर्शन--

दीनदयाल उपाध्याय ने संघ के विजयवाड़ा अधिवेशन में एकात्म मानववाद दर्शन का विवेचन किया बाद में मुम्बई में चार  बातों के द्वारा इसका व्याख्यान दिया ।उन्होंने बताया कि ये एक मण्डलाकार की तरह है जिसके बीच मे एक मानव है उसके चारों ओर उसका परिवार उसके बाद के घेरे में समाज है उसके बाद प्रदेश और देश है अंत मे सारी पृथिवी का  मानव एक मंडल में है और उसके बाद समूर्ण चराचर जगत है और सारे मनुष्य एक दूसरे कड़ी में जुड़े है और एक दूसरे की सहायता से पूरा मंडल संतुलित रहता है। एकात्म मानव वाद वास्तव में कोई साम्यवाद समाजवाद पूंजीवाद की तरह कोई आंदोलन नहीं है बल्कि एक दर्शन है।

उनका कहना था कि मनुष्य मन बुद्धि आत्मा और शरीर का समुच्चय है उसे अलग अलग करके नहीं देखा जा सकता है ,मनुष्य को मैं की भावना त्यागकर हम की भावना से कार्य करना चाहिए ,उनके अनुसार जो दर्शन विदेशी विचारधारा से लिए गए हैं वो भारतीय जनमानस के लिए फिट नहीं हो सकते। इस लिए भारत मे समाजवाद ,साम्यवादी विचारधारा भला नहीं कर सकती।

 उन्होंने लोकतंत्र की मजबूती के लिए कहा कि  राजनीतिक दल  को सत्ता प्राप्ति करने के लिए एकत्र व्यक्तियों का झुंड नहीं होना चाहिए बल्कि उस राजनीतिक दल की अपनी एक अलग विशेषता होना चाहिए जो राष्ट्रहित को सर्वोपरि समझे,उन्होने जातिवाद को लोकतंत्र के लिये घातक बताया था ,इसके लिए उन्होंने हर व्यक्ति में राष्ट्र चेतना जागृति करने के लिए नवजवानों को इसके लिए प्रशिक्षित करना चाहिए जिससे देश मे स्वस्थ लोकतंत्र का निर्माण हो सके।

एकात्म मानववाद – दीनदयाल उपाध्याय का दर्शन

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का "एकात्म मानववाद" भारतीय समाज के समग्र विकास का एक मौलिक सिद्धांत था। यह विचारधारा पूंजीवाद और समाजवाद दोनों से अलग थी और भारतीय संस्कृति पर आधारित थी।

एकात्म मानववाद के प्रमुख तत्व:

  1. समग्र विकास: व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और संपूर्ण सृष्टि का संतुलित विकास।
  2. स्वदेशी अर्थव्यवस्था: भारतीय आर्थिक नीतियों का आधार भारतीय संस्कृति और परंपराओं पर होना चाहिए।
  3. सामाजिक समरसता: जाति, धर्म और वर्ग से ऊपर उठकर समरसता और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना।
  4. आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित राजनीति: राजनीति को नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों से प्रेरित होना चाहिए।

1965 में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने "एकात्म मानववाद" पर व्याख्यान दिए, जो आज भी भारतीय राजनीति और समाज के लिए प्रासंगिक हैं।

दीनदयाल  उपाध्याय की रहस्यमय मृत्यु--

दीनदयाल  उपाध्याय की मृत्यु रहस्य से भरी है। 11 फरवरी 1968 को दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु का समाचार जब देश को हुई तो देश स्तब्ध रह गया।
दीनदयाल उपाध्याय जो  सामान्यता द्वितीय  तृतीय श्रेणी के डब्बे  में यात्रा करते थे जिससे वह आसानी से हर स्टेशन के कार्यकर्ताओं से मिलते थे पर इस बार कार्यकर्ताओं ने उनका प्रथम श्रेणी में रिजर्वेशन करवा दिया था।
 दीनदयाल  उपाध्याय की मौत की गुत्थी अभी तक नहीं सुलझ पाई है ।उस समय की सिंगर्स सरकार ने उनकी मौत को सामान्य मौत बताया था जबकि जनसंघ ने उनकी मृत्यु को हत्या बतलाया था। मुगल सराय रेलवे स्टेशन (अब दीनदयाल रेलवे स्टेशन) के पुलिस रिकॉर्ड के अनुसार 11 फरवरी 1968की सुबह 3.30 बजे  150 गज पहले रेलवे यार्ड में  बिजली के खम्भे के पास मिला उनका शरीर कमर से मुंह तक एक शाल से ढका हुआ था। उनके शरीर से एक  रिजर्वेशन रसीद ,एक प्रथम श्रेणी का टिकट और 26 रुपया बरामद हुए। उनकी लाश को सबसे पहले लीवर मैन ईश्वर दयाल ने देखा और सहायक स्टेशन मास्टर को फोन किया,सूचना मिलते ही स्टेशन मास्टर घटना स्थल पहुंचे और कार्यवाही के बाद लिखा कि व्यक्ति की मौत हो चुकी है।15 मिनट बाद रेलवे  पुलिस के  दरोगा फतेहबहादुर सिंह और सिपाही अब्दुल गफू व राम प्रसाद भी आये। इसके लिए CBI जांच हुई ,जिसमें CBI ने कुछ व्यक्तियों को उनके कपड़े चोरी करने के आरोप में जेल भेज दिया पर उनकी हत्या के आरोप से मुक्त कर दिया।
उनकी मृत्यु एक रहस्य बनी रही तत्कालीन सरकार ने  23 अक्टूबर 1969 में संघ के दबाव पर वाई कर चंद्रचूड़ से न्यायिक जांच करवाई  गई पर इस आयोग ने भी CBI की जांच को सही बताया। परंतु जनसंघ ने इस रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया और उनकी हत्या को एक राजनीतिक
 हत्या बताया ।

हालांकि, उनकी मृत्यु के पीछे की सच्चाई आज भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाई है।

उनकी असमय मृत्यु ने भारतीय राजनीति को गहरा आघात पहुँचाया, लेकिन उनके विचार और आदर्श आज भी जीवंत हैं।

राजनीतिक जीवन और नेतृत्व-- 

दीनदयाल उपाध्याय एक कुशल संगठनकर्ता और विचारक थे। उनके नेतृत्व में भारतीय जनसंघ ने कई राज्यों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। वे मानते थे कि राजनीति का उद्देश्य केवल सत्ता प्राप्ति नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण होना चाहिए।

1967 में वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने। उनके नेतृत्व में जनसंघ ने कई राज्यों में सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की। उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था – भारत को अपनी सांस्कृतिक पहचान के साथ आगे बढ़ना चाहिए और विकास की नीतियां देश की आवश्यकताओं के अनुरूप होनी चाहिए।पं

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की विरासत-- 

दीनदयाल उपाध्याय के विचार भारतीय राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव डालते हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित "एकात्म मानववाद" आज भी कई नीतियों और विचारधाराओं का आधार है। उनके योगदान को सम्मान देने के लिए भारत सरकार ने कई योजनाएँ और संस्थान उनके नाम पर स्थापित किए हैं।

उनकी विरासत के प्रमुख पहलू:

  1. राजनीतिक प्रभाव: भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने उनके विचारों को अपनी नीतियों का आधार बनाया।
  2. आर्थिक नीतियाँ: आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा उनकी स्वदेशी अर्थव्यवस्था की सोच से प्रेरित है।
  3. शिक्षा और समाज सेवा: उनके नाम पर विश्वविद्यालय, शोध संस्थान और योजनाएँ चलाई जा रही हैं।

निष्कर्ष

पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक ऐसे महान विचारक और राष्ट्रवादी नेता थे, जिन्होंने भारतीय राजनीति को नई दिशा दी। उनका जीवन संघर्ष, साधना और सेवा का प्रतीक था। "एकात्म मानववाद" के उनके विचार भारतीय समाज और राजनीति के लिए आज भी प्रासंगिक हैं। उनकी मृत्यु के बावजूद, उनकी विचारधारा और उनके सिद्धांत भारतीय राजनीति में जीवित हैं।

उनका जीवन हमें सिखाता है कि राष्ट्रसेवा ही सबसे बड़ा धर्म है और सच्ची राजनीति वही है जो समाज और देश के कल्याण के लिए समर्पित हो। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का योगदान भारत के इतिहास में सदैव अमर रहेगा।




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