इन बड़ी उपाधियों को लेने के लिए तथा राजत्व प्राप्ति के लिए बड़े बड़े यज्ञ होते थे जैसे बाजपेय ,अश्व
मेघ होते थे। गोपथ ब्राम्हण में तो बाकायदा बताया
गया है कि जो जितना बड़ा राजा उतना बड़ा यज्ञ कर सकता था।
राजा का पद वंशानुगत हो गया था,अब वैदिक कालीन संस्थाएं सभा और समिति तथा विदथ नामक संस्थाए थी। तो पर उनकी कोई उपयोगिता नही रह गई थी।
राजा अब रत्नीनों के परामर्श से प्रशासन चलाता था, संगृहिता नामक अधिकारी "बलि" नामक कर की वसूली करता था ,पर अभी तक पूरी तरह विकसित प्रशासनिक व्यवस्था मजबूत नहीं हो पाई थी।
तथापि राजा को अपने मंत्रिपरिषद से परामर्श लेना पड़ता था,मंत्रीपरिषद इस प्रकार थी।
1)पुरोहित (2)महिषी (सबसे बड़ी रानी या पटरानी थी)(3) सेनानी(4) क्षत्ता(प्रतिहारी(5) संग्रहीता(कोषाध्यक्ष)(6)भागदूध्(कराधिकारी),राजा (सामंतो का प्रतिनिधि),सूत( चारण)(9) रथकार (सेना का प्रतिनिधि)(10) कर्मार (उद्योगों का प्रतिनिधि )ग्रामणी (ग्राम्य जनता के हितों का प्रतिनिधित्व दरबार में करता था)अथर्वेद ग्रन्थ में इन मन्त्री गणों को राजकृत कहा गया अर्थात राजा को बनाने वाला बताया गया है।
उत्तर वैदिक काल मे सामाजिक परिवर्तन
उत्तरवैदिक युग में आर्य लोग स्थिर जीवन जीने लगे तब राजा की संकल्पना का उदय हुआ अब राजा भी केवल युद्ध मे प्रजा की रक्षा के लिए नहीं था बल्कि वो अब वो अपने राज्य के लिए विधि विधान को बनाने वाली शक्ति थी जो प्रजापालक के साथ विधि और नियमों कानूनों को जनता पर लागू भी करवा सकता था ,और उसकी शक्ति का प्रदाता सीधे ईश्वर था ,यानी आप कह सकते हो उसके क़ानून ईश्वर की इच्छा से बने क़ानून माने जाने लगे।
उपनिषद में कई ऐसे राजाओं के ज्ञान की चर्चा मिलती है जो जन्म से क्षत्रिय थे पर कई ब्राम्हणों को दीक्षा दिया , राजा जनक ने याज्ञवल्क्य को दीक्षा दिया,पांचाल के प्रवाहण जैवाली, काशी के अजातशत्रु और अश्वपति कैकेय ने कई ब्राम्हणों को दर्शन सम्बन्धी ज्ञान दिया।
इस समय समाज में परिवार की मुख्य इकाई में कोई परिवर्तन नहीं आया था,उनके खान पान,आमोद प्रमोद के सभी साधन ऋग्वैदिक समय की तरह यथावत रहे,परंतु इस समय पुत्र की चाहत अधिक बढ़ गई और पुत्रियों के जन्म को अभिशाप माना जाने लगा,ऐतरेय ब्राम्हण में पुत्र को परिवार का रक्षक और पुत्री को अभिशाप माना जाने लगा , इसी प्रकार मैत्रायणी संहिता में पुरुष की बुराई में जुआं ,सूरा (शराब) के साथ साथ स्त्री को भी एक कारण बताया गया है।
विवाह की बात करें तो इस समय भी विवाह एकात्मक ही होते थे ,यद्यपि उच्चवर्णो में बहु विवाह की प्रथा प्रचलित थी ,परंतु इसमें भी पहली पत्नी पटरानी होती थी उसको अधिक अधिकार प्राप्त होते थे। जिन महिलाओं के पति का निधन हो जाता था उनको विधवा विवाह की अनुमति थी , नियोग प्रथा भी उत्तरवैदिक काल में पहले की तरह ही विद्यमान थी। सती प्रथा के कोई भी प्रमाण उत्तरवैदिक काल में नहीं मिलते ,इस समय लड़कियों का विवाह अल्पायु में ही हो जाता था, यद्यपि स्त्रियों को शिक्षा दीक्षा बन्द नहीं हुई थी बृहदारण्यक ने गार्गी की शिक्षित किया विदुषी स्त्री बनाया। परंतु इस काल मे स्त्रियों की दशा में गिरावट देखने की मिलती है।
ऐतरेय ब्राम्हण में व्यवसायों के अनुसार जातियों के कार्य विभाजन एवं कर्त्तव्यों का वर्णन है,जिसके अनुसार ब्राम्हण की भूमिका दान पर आधारित थी (अदायी), क्षत्रिय भूमि का स्वामी है ,वैश्य कर देने वाला (बलीकृत) है और अपने क्षत्रिय स्वामी का आसामी है,शूद्र को सेवा में जीवन व्यतीत करना है
उत्तरवैदिक काल मैं सामाजिक व्यवस्था में आश्रमव्यवस्था का उदय हुआ एक व्यक्ति के आयु को 100 वर्ष मानकर चार आश्रमों में विभाजित किया गया,आश्रम व्यवस्था का पहला चरण था ब्रम्हचर्य आश्रम इस चरण में बालक के बाल्यावस्था के समाप्ति के बाद उसे गुरुकुल में शिक्षा प्राप्ति के लिए जाने का प्रावधान किया गया इसमें व्यक्ति बालक को युवावस्था तक गुरु आश्रम में कठोर अनुशासन और कठोर नियमों का पालन करते हुए विद्यार्जन का नियम बनाया गया।
ब्रम्हचर्य आश्रम के बाद व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है ,इसमें व्यक्ति को सांसारिक नियमों के पालन करने तथा अपने पिता के पित्र ऋण को पूरा करने के लिए गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना होता है ,गृहस्थ आश्रम में उसे विवाह और संतान प्राप्ति और उसके लालन पालन का कार्य करना साथ में अर्थोपार्जन तथा अतिथि सत्कार जैसे कार्य करना पड़ता है, अथर्वेद में व्यक्ति के बारे में कहा जाता है कि उसका माता पिता के प्रति ऋण होता है औऱ मनुष्य इस ऋण को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करके ही चुका सकता है।
गृहस्थ आश्रम के बाद जब मानव जीवन मे बृद्धावस्था प्रारम्भ होती है और व्यक्ति अपने सारे दायित्व को पूरा कर लेता है तब वह सारी जिम्मेदारियों को अपने पुत्रों को देकर स्वयं गांव से बाहर कुटिया बनाकर रहने लगता है और ईश्वर के ध्यान में लगा रहता है।
सन्यास आश्रम में व्यक्ति अंतिम चरण में होता है इस समय व्यक्ति जंगलों में निवास करता है और सन्यासी की तरह जीवन व्यतीत करता है और मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयास करता है ,साथ मे अपने प्राप्त ज्ञान से यही
सन्यासी घूम घूम कर उपदेश भी देते है,इन्हें परिव्राजक
भी कहा जाता है।
आश्रम व्यवस्था के द्वारा मनुष्य चार पुरुषार्थ धर्म अर्थ काम मोक्ष की प्राप्ति का प्रयास करता है।
गुरुकुल आश्रम में प्रवेश के लिए उपनयन संस्कार भी होता था ,स्त्रियां और शुद्र को शिक्षा. और उपनयन का अधिकार नहीं था, शिक्षा में नक्षत्र विद्या ,तर्कशास्त्र, इतिहास, उपनिषद ,देव विद्या ,भूत विद्या,प्राणायाम ,योगविद्या, शारीरिक और चारित्रिक बल की शिक्षा दी जाती थी। विद्यार्थी को शिक्षा बारह वर्ष तक आश्रम में रहकर ग्रहण करना होता था।
घरेलू विद्यालय और ऋषियों के आश्रमों के अतिरिक्त ज्ञान प्रात करने के अन्य साधन भी होते थे,जैसे चरक
अथवा विद्वान अपने प्रवचनों और शास्त्रार्थों द्वारा जनता को शिक्षित करते थे ये चरक लागातार भ्रमण करते रहते थे , परिषद् ( अकादमी) होतीं थीं जहां विद्वान एकत्र होते थे , इनमें से एक परिषद् थी पांचाल परिषद् जिसमे पांचाल के विद्वान राजा" प्रवाहण जैवाली " प्रतिदिन भाग लेता था, इसी प्रकार विदेह के राजा जनक ने भी विद्वत्परिषद एकत्र की थी , जिसमें याज्ञवल्क्य अपने शिष्यों उद्दालक आरुणि, गार्गी आदि आचार्यों के नेतृत्व में एकत्र हुए थे ,साथ में कई अन्य विद्वानों ने सभा में शास्त्रार्थ में भाग लिया था।
उत्तर वैदिक काल मे आर्थिक बदलाव-
उत्तरवैदिककाल मे लोहे की खोज हो जाने के बाद आर्थिक स्थिति में उन्नति हुई , लोहे को उत्तरवैदिककाल के ग्रंथो मेंं श्याम आयस कहा जाता था।
अतःरंजीखेड़ा जो आज उत्तरप्रदेश के एटा जिले में है यहां पर वैदिक काल के कृषि उपकरण मिले हैं।
अथर्वेद में और ऋग्वेद में राजा वेन के पुत्र पृथु (जिनके नाम पर धरती को पृथ्वी भी कहते हैं) ने कृषि विद्या का अविष्कार किया।
उत्तरवैदिक काल के ग्रन्थ शतपथ ब्राम्हण में कृषि कार्यों संबंधी विस्तृत रूपरेखा दी गई है ,
शतपथ ब्राम्हण में (1)-कर्षण-खेतों की जुताई (2)-वपन-बीज बोने की प्रक्रिया (3)-लवन-पके खेत की कटाई करना(4)-मर्दन-मड़ाई करके अनाज़ को साफ सुथरा करना।
काठक संहिता में 24 बैलों से हल खींचे जाने का उल्लेख मिलता है, ये हल कठोर लकड़ी के बने होते थे और बहुत ज्यादा भारी भी होते थे जिससे ज्यादा गहरी जुताई की जा सके,इस तकनीकी के ईजाद होने से उत्पादन बढ़ गया था ।
इस समय की वाजसनेयी संहिता में चावल(व्रीहि),जौ (यव),मूंग(मुदक),उड़द(माष), खल्व् (चना),अणु (पतला चावल), नीवार (कोदो)
(गोधूम),मसूर आदि अन्नों की तालिका दी गई है,शतपथ ब्राम्हण में बीज बोने, हल चलाने,फसल काटने , फ़सल खलिहान में मड़ाई करने उसे गाहने उगाहने के तकनीक का वर्णन मिलता है।
उर्वरक का प्रयोग कृषि कार्यों में होता था ,ऋग्वेद में इसके लिए क्षेत्र साधन शब्द का प्रयोग हुआ है,इसमें करीष,शकन, शकृत(गोबर) का पर्योग हुआ है जो गाय ,भैंस की गोबर ही थी।
कृषि को नुकसान पहुंचाने वाले जीव में आखू(चूहा),तर्ड (कठफोड़वा),पतंग (टिड्डी) को बताया गया है,चूहा को मारने के निर्देश हैं।
यजुर्वेद में गाय ,गवय(नील गाय),द्विपाद पशु , चतुष्पाद पशु ऊंट,भेंड़,गाय , भैंस को मारने पर दंड का प्रावधान किया गया है।
उत्तरवैदिककाल में तकनीकी विकास हो रहा था ,क्योंकि कृषि कार्य के उपकरणों के निर्माण ,रथों का निर्माण,यज्ञ वेदी का निर्माण,नावों का निर्माण, मिटटी के बर्तन, विभिन्न धातुओं से निर्मित बर्तन का प्रयोग होने लगा था। यज्ञ वेदी बनाने में गणित का विकास हुआ , गांव का राजमिस्त्री विशिष्ट प्रकार की यज्ञ वेदियां भी बनाते थे जिसमे पंखे फैलाए हुए पक्षी का आकार दीखता था ,इसमें क़रीब 10,800 ईंटों का प्रयोग होता था। वेदों में 140 प्रकार के व्यवसायों की सूची मिलती है।
इस समय 100 पतवार वाली नौका का उल्लेख समुद्री यात्रा में होता था इस समय के गृन्थों में मिलता है, नाविक को नावज कहते थे, मस्तुल बनाने वाले को शम्बी कहा जाता था।
इस समय सोनें चाँदी, कांसा, लोहा(श्याम अयस कहा जाता था),ताम्बा(लोह कहा जाता था) ,टिन(त्रपु) की वस्तुवें बनाई जातीं थीं,सोने और चाँदी के सिक्के और जेवर बनते थे , 100 कृष्णल का शतनाम होता था ,जो नापजोख की इकाई थी।
वाजसनेयी संहिता में मछुआ, सारथी, स्वर्णकार, मणि कार ,रस्सी बटोरने वाला,धोबी,लुहार,रंगसाज,कुम्भकार,टोकरी बुनने वाला आदि व्यवसायों की सूची मिलती है,इस समय काल में जो बर्तन उत्खनन में मिले है उन्हें चित्रित धूसर मृदभांड (Painted Grey Ware, PGW) कहा जाता है ,जो बहुतायत में प्रयोग होते थे ।
इस समय तक विभिन्न व्यवसायों के लोंगों ने अपना अपना संगठन बनाना शुरू कर दिया था संगठनों के प्रधान को गण गणपति श्रेष्ठी जैसे शब्दों से वर्णित किया गया था।
जल और थल दोनों मार्गों से व्यापार होता था,सिक्कों के प्रचलन के कोई प्रमाण अभी तक नही मिलता,यद्यपि शतनाम ,पाद ,कृष्णल, निष्क जैसे कुछ शब्दों से मुद्रा प्रणाली का आभास मिलता है।
निष्कर्ष---
इस प्रकार हम देखतें है की ऋग्वैदिक काल की तुलना में उत्तरवैदिक काल में राज्य, राज्य के नियम और उनके मंत्रिपरिषद में,धर्म में यज्ञ कर्मकांड और साथ में आरण्यक और उपनिषद के ज्ञान और तप से ईश्वर प्राप्ति की अवधारणा का विकास हुआ,अर्थव्यस्था में हर कार्य के लिए विशेषज्ञ लोग आये ,कृषि ,व्यापार ,यातायात के साधनों में विकास हुआ,इस सब के कारण हर व्यवसाय के अपने अपने संगठन बनने लगे जिसके कारण हर कार्य के लिए अलग अलग उपवर्ण भी बने
Comments
Post a Comment
Please do not enter any spam link in this comment box