Samsung M-12 phone review-- https://amzn.to/3IrqUdm Features & details 48MP+5MP+2MP+2MP Quad camera setup- True 48MP (F 2.0) main camera + 5MP (F2.2) Ultra wide camera+ 2MP (F2.4) depth camera + 2MP (2.4) Macro Camera| 8MP (F2.2) front came 6000mAH lithium-ion battery, 1 year manufacturer warranty for device and 6 months manufacturer warranty for in-box accessories including batteries from the date of purchase Android 11, v11.0 operating system,One UI 3.1, with 8nm Power Efficient Exynos850 (Octa Core 2.0GH 16.55 centimeters (6.5-inch) HD+ TFT LCD - infinity v-cut display,90Hz screen refresh rate, HD+ resolution with 720 x 1600 pixels resolution, 269 PPI with 16M color Memory, Storage & SIM: 4GB RAM | 64GB internal memory expandable up to 1TB| Dual SIM (nano+nano) dual-standby Product information OS Android 11 RAM 4 GB Product Dimensions 1 x 7.6 x 16.4 cm; 221 Grams Batteries 1 Lithium ion batteries required. (included) Item model number Galaxy M12 Wireless communicatio
उत्तरवैदिक काल का इतिहास
- Get link
- Other Apps
उत्तरवैदिक काल का
इतिहास
उत्तर वैदिक काल 1000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व तक का है ,इस काल में चार वेदों में तीन वेद यजुर्वेद, सामवेद,अथर्वेद की रचना हुई साथ में ब्राम्हण ग्रन्थ,आरण्यक,उपनिषद ग्रन्थ भी लिखे गये,इन ग्रंथों में वर्णित तथ्यों के आधार पर तथा उत्खनन में चित्रित धूसर मृदभांड से,लोहे के प्रयोग से जो अतरंजीखेड़ा ,नोह से मिले हैं उसके आधार पर उस समय की जानकारी मिलती है जिसमें ज्ञात होता है कि कबाइली तत्व कमजोर हो गए थे क्षेत्रीय राज़्यों का उदय हुआ था,कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था का जन्म हो चुका था,वर्ण व्यवस्था में जटिलता आ चुकी थी। धर्म में यज्ञ के कर्मकांड में जटिलता आ चुकी थी। साथ में उपनिषदों में यज्ञ को आडम्बर बताकार ज्ञान और ध्यान द्वारा ही ईश्वर से जुड़ने का सरल मार्ग प्रतिपादित किया गया था।
उत्तरवैदिक काल में सामाजिक और
प्रशासनिक व्यवस्था------
उत्तरवैदिक काल मे पंजाब से बाहर गंगा यमुना के दोआब तक आ गए ,उत्तरवैदिक साहित्य से जानकारी मिलती है कि आर्य क्रमिक रूप से पूरब की तऱफ बढ़ रहे थे,तथा प्रसार होने से नवीन राज्यों का निर्माण हो रहा था,कुछ श्रेष्ठ जनों का वर्णन इन साहित्यिक ग्रन्थ में मिलती है , जैसे कुरु पांचाल उस समय संस्कृत भाषा के सर्वश्रेष्ठ वक्ताओं और विद्वानों के नाम से जाना जाता था , इसी तरह कोशल-काशी का राजा स्वयं में बहुत विद्वान था,इसी तरह विदेह का राजा जनक को राजर्षि कहा जाता था क्यों?
आर्य पंजाब से निकलकर आज के हरियाणा, दिल्ली ,मेरठ ,बाग़पत क्षेत्र तक फ़ैल चुके थे उस समय ये क्षेत्र कुरु पांचाल कहलाता था वो धीरे धीरे आज के उत्तर प्रदेश तक फैले क्योंकि काशी का उल्लेख मिलता है ,मगध (आज के बिहार) के पश्चिमी भाग तक ही उत्तर वैदिक काल तक आर्यजन फ़ैल पाए थे।
जिसका विवरण शतपथ ब्राम्हण के एक कथा से मालूम होता है कि कैसे विदेथ माधव ने अग्नि द्वारा घने जंगलों को जलाकर सदानीरा गंडक नदी तक पहुंच गए थे ,इस समय तक आर्यों का पूरब की ओर अंग देश तक प्रसार नहीं हुआ था पर आर्य आगे बढ़ने का प्रयास कर रहे थे तथा पूर्व दिशा की तरफ़ घना जंगल था जहां पहले से मानव बस्तियां नहीं थीं या बहुत कम थीं। अथर्वेद में इससे सम्बंधित एक सूक्त में वर्णन मिलता है कि जिसमें ये कामना की गई है कि तवमन(ज्वर) मगध,अंग,बंग,गंधारी,भुर्जवंत आदि देशों में चला जाए।यानि पूर्व के क्षेत्र मगध,अंग बंग,आर्य भारत से बहार थे,इसी तरह दक्षिण में आंध्र,पुलिंद,पुण्ड्र, शबर,विदर्भ आर्य क्षेत्र से बहार थे,इसका उल्लेख ऐतरेय ब्राम्हण ग्रन्थ में मिलता है।
दक्षिण में आर्य विदर्भ की सीमा तक पहुंच गए थे,गंगा घाटी तक प्रसार में आर्यों को जंगल काटने पड़े साथ मे ताम्रपाषाणिक लोंगों से संघर्ष भी करना पड़ा,इसमे आर्यों को कुल्हाड़ी और तलवार भाले की जरूरत पड़ी होगी ,जो आर्यों को आसानी से मिल चुके थे क्योंकि आर्य अब लोहे से बने उपकरण प्रयोग करने लगे जो कुल्हाड़ी,हल,तलवार को मजबूती प्रदान करता था।क्योंकि दोआब के अनेक स्थल अतरंजीखेड़ा, नोह्, आलमगीरपुर आदि जगह में लोहे के हथियार भी मिले हैं।
उत्तरवैदिककाल की राजनीतिक परिस्थितियों में तेजी से बदलाव हुआ ,अब छोटे छोटे कबाइली राज्य समाप्त होकर बड़े बड़े राज्य बनाए गए जिसमें भरत और पुरु क़बीलों को मिलाकर कुरु क़बीला बन गया,तुर्वश और क्रिव क़बीला मिलकर पांचाल क़बीला बना,बाद में यही पांचाल पहले वाले कुरु क़बीले के मिलने से कुरु-पांचाल क़बीला बना जिसकी राजधानी हस्तिनापुर थी,वहीं पांचालों की राजधानी काम्पिल्य थी, पांचालों के प्रसिद्ध राजा प्रवाहण जाबालि थे,कुरु पांचाल सबसे शक्तिशाली राज्य था ,इसके अलावा गांधार ,कैकेय, मद्र एवं मत्स्य थे,ये राज्य अपने अपने जगह कई छोटे राज्यों को सैन्य शक्ति के आधार पर मिलाकर बाद में बड़े राज्यों में बदल चुके थे पूर्व की तरफ बड़े राज्यों में काशी ,कोशल, अंग ,मगध थे ।
राजतंत्र में कबीलाई स्वरूप में बदलाव हुआ क्षेत्रीय स्वरूप निर्मित हुआ,अथर्वेद में कहा गया कि राष्ट्र राजा के हाँथ में है , तथा सारे देवता राजा को सुरक्षित करें ,राजा के दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत भी इसी ग्रंथ में हैं।
अथर्वेद में राजा के निर्वाचन,निष्कासन संबधी सूक्त वर्णित है,राजा को विश्पति कहा जाता था,उसे नियम विधान के प्रति सत्यसंध होने की शपथ लेनी पड़ती थी,यह राष्ट्र का प्रभु माना जाता था और धर्म को आचरण को बनाये रखने के लिए दंड का प्रावधान करता था।
जब कई राज्य मिलकर एक हुए तब राजा ने और बड़ी उपाधियां रखना शुरू किया अब राजा अधिराज,राजाधिराज ,सम्राट ,विराट जैसी उपाधियां धारण करने लगे, इनकी शासन प्रणाली में अलग अलग विशेषतायें थीं।
इन बड़ी उपाधियों को लेने के लिए तथा राजत्व प्राप्ति के लिए बड़े बड़े यज्ञ होते थे जैसे बाजपेय ,अश्व
मेघ होते थे। गोपथ ब्राम्हण में तो बाकायदा बताया
गया है कि जो जितना बड़ा राजा उतना बड़ा यज्ञ कर सकता था।
राजा का पद वंशानुगत हो गया था,अब वैदिक कालीन संस्थाएं सभा और समिति तथा विदथ नामक संस्थाए थी। तो पर उनकी कोई उपयोगिता नही रह गई थी।
राजा का पद वंशानुगत हो गया था,अब वैदिक कालीन संस्थाएं सभा और समिति तथा विदथ नामक संस्थाए थी। तो पर उनकी कोई उपयोगिता नही रह गई थी।
राजा अब रत्नीनों के परामर्श से प्रशासन चलाता था, संगृहिता नामक अधिकारी "बलि" नामक कर की वसूली करता था ,पर अभी तक पूरी तरह विकसित प्रशासनिक व्यवस्था मजबूत नहीं हो पाई थी।
तथापि राजा को अपने मंत्रिपरिषद से परामर्श लेना पड़ता था,मंत्रीपरिषद इस प्रकार थी।
1)पुरोहित (2)महिषी (सबसे बड़ी रानी या पटरानी थी)(3) सेनानी(4) क्षत्ता(प्रतिहारी(5) संग्रहीता(कोषाध्यक्ष)(6)भागदूध्(कराधिकारी),राजा (सामंतो का प्रतिनिधि),सूत( चारण)(9) रथकार (सेना का प्रतिनिधि)(10) कर्मार (उद्योगों का प्रतिनिधि ),ग्रामणी (ग्राम्य जनता के हितों का प्रतिनिधित्व दरबार में करता था ) अथर्वेद ग्रन्थ में इन मन्त्री गणों को राजकृत कहा गया अर्थात राजा को बनाने वाला बताया गया है।
उत्तर वैदिक काल मे सामाजिक परिवर्तन
उत्तरवैदिक युग में आर्य लोग स्थिर जीवन जीने लगे तब राजा की संकल्पना का उदय हुआ अब राजा भी केवल युद्ध मे प्रजा की रक्षा के लिए नहीं था बल्कि वो अब वो अपने राज्य के लिए विधि विधान को बनाने वाली शक्ति थी जो प्रजापालक के साथ विधि और नियमों कानूनों को जनता पर लागू भी करवा सकता था ,और उसकी शक्ति का प्रदाता सीधे ईश्वर था ,यानी आप कह सकते हो उसके क़ानून ईश्वर की इच्छा से बने क़ानून माने जाने लगे।
उपनिषद में कई ऐसे राजाओं के ज्ञान की चर्चा मिलती है जो जन्म से क्षत्रिय थे पर कई ब्राम्हणों को दीक्षा दिया , राजा जनक ने याज्ञवल्क्य को दीक्षा दिया,पांचाल के प्रवाहण जैवाली, काशी के अजातशत्रु और अश्वपति कैकेय ने कई ब्राम्हणों को दर्शन सम्बन्धी ज्ञान दिया।
इस समय समाज में परिवार की मुख्य इकाई में कोई परिवर्तन नहीं आया था,उनके खान पान,आमोद प्रमोद के सभी साधन ऋग्वैदिक समय की तरह यथावत रहे,परंतु इस समय पुत्र की चाहत अधिक बढ़ गई और पुत्रियों के जन्म को अभिशाप माना जाने लगा , ऐतरेय ब्राम्हण में पुत्र को परिवार का रक्षक और पुत्री को अभिशाप माना जाने लगा , इसी प्रकार मैत्रायणी संहिता में पुरुष की बुराई में जुआं ,सूरा (शराब) के साथ साथ स्त्री को भी एक कारण बताया गया है।
विवाह की बात करें तो इस समय भी विवाह एकात्मक ही होते थे ,यद्यपि उच्चवर्णो में बहु विवाह की प्रथा प्रचलित थी ,परंतु इसमें भी पहली पत्नी पटरानी होती थी उसको अधिक अधिकार प्राप्त होते थे। जिन महिलाओं के पति का निधन हो जाता था उनको विधवा विवाह की अनुमति थी , नियोग प्रथा भी उत्तरवैदिक काल में पहले की तरह ही विद्यमान थी। सती प्रथा के कोई भी प्रमाण उत्तरवैदिक काल में नहीं मिलते ,इस समय लड़कियों का विवाह अल्पायु में ही हो जाता था, यद्यपि स्त्रियों को शिक्षा दीक्षा बन्द नहीं हुई थी बृहदारण्यक ने गार्गी की शिक्षित किया विदुषी स्त्री बनाया। परंतु इस काल मे स्त्रियों की दशा में गिरावट देखने की मिलती है।
ऐतरेय ब्राम्हण में व्यवसायों के अनुसार जातियों के कार्य विभाजन एवं कर्त्तव्यों का वर्णन है,जिसके अनुसार ब्राम्हण की भूमिका दान पर आधारित थी (अदायी), क्षत्रिय भूमि का स्वामी है ,वैश्य कर देने वाला (बलीकृत) है और अपने क्षत्रिय स्वामी का आसामी है ,शूद्र को सेवा में जीवन व्यतीत करना है
उत्तरवैदिक काल मैं सामाजिक व्यवस्था में आश्रमव्यवस्था का उदय हुआ एक व्यक्ति के आयु को 100 वर्ष मानकर चार आश्रमों में विभाजित किया गया,आश्रम व्यवस्था का पहला चरण था ब्रम्हचर्य आश्रम इस चरण में बालक के बाल्यावस्था के समाप्ति के बाद उसे गुरुकुल में शिक्षा प्राप्ति के लिए जाने का प्रावधान किया गया इसमें व्यक्ति बालक को युवावस्था तक गुरु आश्रम में कठोर अनुशासन और कठोर नियमों का पालन करते हुए विद्यार्जन का नियम बनाया गया।
ब्रम्हचर्य आश्रम के बाद व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है ,इसमें व्यक्ति को सांसारिक नियमों के पालन करने तथा अपने पिता के पित्र ऋण को पूरा करने के लिए गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना होता है ,गृहस्थ आश्रम में उसे विवाह और संतान प्राप्ति और उसके लालन पालन का कार्य करना साथ में अर्थोपार्जन तथा अतिथि सत्कार जैसे कार्य करना पड़ता है, अथर्वेद में व्यक्ति के बारे में कहा जाता है कि उसका माता पिता के प्रति ऋण होता है औऱ मनुष्य इस ऋण को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करके ही चुका सकता है।
गृहस्थ आश्रम के बाद जब मानव जीवन मे बृद्धावस्था प्रारम्भ होती है और व्यक्ति अपने सारे दायित्व को पूरा कर लेता है तब वह सारी जिम्मेदारियों को अपने पुत्रों को देकर स्वयं गांव से बाहर कुटिया बनाकर रहने लगता है और ईश्वर के ध्यान में लगा रहता है।
सन्यास आश्रम में व्यक्ति अंतिम चरण में होता है इस समय व्यक्ति जंगलों में निवास करता है और सन्यासी की तरह जीवन व्यतीत करता है और मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयास करता है ,साथ मे अपने प्राप्त ज्ञान से यही
सन्यासी घूम घूम कर उपदेश भी देतेहै,इन्हेंपरिव्राजक
भी कहा जाता है,।
आश्रम व्यवस्था के द्वारा मनुष्य चार पुरुषार्थ धर्म अर्थ काम मोक्ष की प्राप्ति का प्रयास करता है।
गुरुकुल आश्रम में प्रवेश के लिए उपनयन संस्कार भी होता था ,स्त्रियां और शुद्र को शिक्षा. और उपनयन का अधिकार नहीं था, शिक्षा में नक्षत्र विद्या ,तर्कशास्त्र, इतिहास, उपनिषद ,देव विद्या ,भूत विद्या,प्राणायाम ,योगविद्या, शारीरिक और चारित्रिक बल की शिक्षा दी जाती थी। विद्यार्थी को शिक्षा बारह वर्ष तक आश्रम में रहकर ग्रहण करना होता था।
घरेलू विद्यालय और ऋषियों के आश्रमों के अतिरिक्त ज्ञान प्रात करने के अन्य साधन भी होते थे,जैसे चरक
अथवा विद्वान अपने प्रवचनों और शास्त्रार्थों द्वारा जनता को शिक्षित करते थे ये चरक लागातार भ्रमण करते रहते थे , परिषद् ( अकादमी) होतीं थीं जहां विद्वान एकत्र होते थे , इनमें से एक परिषद् थी पांचाल परिषद् जिसमे पांचाल के विद्वान राजा" प्रवाहण जैवाली " प्रतिदिन भाग लेता था, इसी प्रकार विदेह के राजा जनक ने भी विद्वत्परिषद एकत्र की थी , जिसमें याज्ञवल्क्य अपने शिष्यों उद्दालक आरुणि, गार्गी आदि आचार्यों के नेतृत्व में एकत्र हुए थे ,साथ में कई अन्य विद्वानों ने सभा में शास्त्रार्थ में भाग लिया था।
उत्तर वैदिक काल मे आर्थिक बदलाव-
उत्तरवैदिककाल मे लोहे की खोज हो जाने के बाद आर्थिक स्थिति में उन्नति हुई , लोहे को उत्तरवैदिककाल के ग्रंथो मेंं श्याम आयस कहा जाता था।
अतःरंजीखेड़ा जो आज उत्तरप्रदेश के एटा जिले में है यहां पर वैदिक काल के कृषि उपकरण मिले हैं।
अथर्वेद में और ऋग्वेद में राजा वेन के पुत्र पृथु (जिनके नाम पर धरती को पृथ्वी भी कहते हैं) ने कृषि विद्या का अविष्कार किया।
उत्तरवैदिक काल के ग्रन्थ शतपथ ब्राम्हण में कृषि कार्यों संबंधी विस्तृत रूपरेखा दी गई है ,
शतपथ ब्राम्हण में 1)-कर्षण-खेतों की जुताई2)-वपन-बीज बोने की प्रक्रिया 3)-लवन-पके खेत की कटाई करना4)-मर्दन-मड़ाई करके अनाज़ को साफ सुथरा करना।
काठक संहिता में 24 बैलों से हल खींचे जाने का उल्लेख मिलता है, ये हल कठोर लकड़ी के बने होते थे और बहुत ज्यादा भारी भी होते थे जिससे ज्यादा गहरी जुताई की जा सके,इस तकनीकी के ईजाद होने से उत्पादन बढ़ गया था ।
इस समय की वाजसनेयी संहिता में चावल(व्रीहि),जौ (यव),मूंग(मुदक),उड़द(माष), खल्व् ( चना),अणु (पतला चावल), नीवार (कोदो)
(गोधूम),मसूर आदि अन्नों की तालिका दी गई है,शतपथ ब्राम्हण में बीज बोने, हल चलाने,फसल काटने , फ़सल खलिहान में मड़ाई करने उसे गाहने उगाहने के तकनीक का वर्णन मिलता है।
उर्वरक का प्रयोग कृषि कार्यों में होता था ,ऋग्वेद में इसके लिए क्षेत्र साधन शब्द का प्रयोग हुआ है,इसमें करीष,शकन, शकृत(गोबर) का पर्योग हुआ है जो गाय ,भैंस की गोबर ही थी।
कृषि को नुकसान पहुंचाने वाले जीव में आखू(चूहा),तर्ड (कठफोड़वा),पतंग (टिड्डी) को बताया गया है,चूहा को मारने के निर्देश हैं।
यजुर्वेद में गाय ,गवय(नील गाय),द्विपाद पशु , चतुष्पाद पशु ऊंट,भेंड़,गाय , भैंस को मारने पर दंड का प्रावधान किया गया है।
उत्तरवैदिककाल में तकनीकी विकास हो रहा था ,क्योंकि कृषि कार्य के उपकरणों के निर्माण ,रथों का निर्माण,यज्ञ वेदी का निर्माण,नावों का निर्माण, मिटटी के बर्तन, विभिन्न धातुओं से निर्मित बर्तन का प्रयोग होने लगा था। यज्ञ वेदी बनाने में गणित का विकास हुआ , गांव का राजमिस्त्री विशिष्ट प्रकार की यज्ञ वेदियां भी बनाते थे जिसमे पंखे फैलाए हुए पक्षी का आकार दीखता था ,इसमें क़रीब 10,800 ईंटों का प्रयोग होता था। वेदों में 140 प्रकार के व्यवसायों की सूची मिलती है।
इस समय 100 पतवार वाली नौका का उल्लेख समुद्री यात्रा में होता था इस समय के गृन्थों में मिलता है, नाविक को नावज कहते थे, मस्तुल बनाने वाले को शम्बी कहा जाता था।
इस समय सोनें चाँदी, कांसा, लोहा(श्याम अयस कहा जाता था ) ,ताम्बा(लोह कहा जाता था) ,टिन( त्रपु) की वस्तुवें बनाई जातीं थीं,सोने और चाँदी के सिक्के और जेवर बनते थे , 100 कृष्णल का शतनाम होता था ,जो नापजोख की इकाई थी।
वाजसनेयी संहिता में मछुआ, सारथी, स्वर्णकार, मणि कार ,रस्सी बटोरने वाला,धोबी,लुहार,रंगसाज,कुम्भकार,टोकरी बुनने वाला आदि व्यवसायों की सूची मिलती है,इस समय काल में जो बर्तन उत्खनन में मिले है उन्हें चित्रित धूसर मृदभांड (painted grey ware, PGW) कहा जाता है ,जो बहुतायत में प्रयोग होते थे ।
इस समय तक विभिन्न व्यवसायों के लोंगों ने अपना अपना संगठन बनाना शुरू कर दिया था संगठनों के प्रधान को गण गणपति श्रेष्ठी जैसे शब्दों से वर्णित किया गया था।
जल और थल दोनों मार्गों से व्यापार होता था,सिक्कों के प्रचलन के कोई प्रमाण अभी तक नही मिलता,यद्यपि शतनाम ,पाद ,कृष्णल, निष्क जैसे कुछ शब्दों से मुद्रा प्रणाली का आभास मिलता है।
निष्कर्ष---
इस प्रकार हम देखतें है की ऋग्वैदिक काल की तुलना में उत्तरवैदिक काल में राज्य, राज्य के नियम और उनके मंत्रिपरिषद में , धर्म में यज्ञ कर्मकांड और साथ में आरण्यक और उपनिषद के ज्ञान और तप से ईश्वर प्राप्ति की अवधारणा का विकास हुआ ,अर्थव्यस्था में हर कार्य के लिए विशेषज्ञ लोग आये ,कृषि ,व्यापार ,यातायात के साधनों में विकास हुआ ,इस सब के कारण हर व्यवसाय के अपने अपने संगठन बनने लगे जिसके कारण हर कार्य के लिए अलग अलग उपवर्ण भी बने ।
पढ़ें इतिहास की पुस्तक--प्राचीन भारत का इतिहास--के. सी. श्रीवास्तव
- Get link
- Other Apps
Popular posts from this blog
नव पाषाण काल का इतिहास Neolithic age-nav pashan kaal
नव पाषाण काल मे मानव सभ्यता :Neolithic age यूनानी भाषा मे neo का अर्थ होता है नवीन तथा लिथिक का अर्थ होता है पत्थर, इसलिए इस काल को नवपाषाण काल कहते हैं , इस काल की सभ्यता भारत के लगभग संम्पूर्ण भाग में फैली थी , सर्वप्रथम ला मेसुरियर ने इस काल का प्रथम पत्थर का उपकरण 1860 में मेसुरियर ने उत्तर प्रदेश के टोंस नदी घाटी से प्राप्त किया , इस समय के बने प्रस्तर औजार गहरे ट्रैप( dark trap rock)के बने थे , इनमे विशेष प्रकार की पालिश की जाती थी प्रागैतिहासिक काल का सबसे विकसित काल नव पाषाण काल था , इसका समय लगभग सात हजार वर्ष पूर्व माना जाता है , विश्व भर में इस काल मे कृषि कार्यों का प्रयोग मनुष्य ने शुरू कर दिया था, अर्थात अब मानव भोजन के लिए शिकार पर आधारित न रहकर उत्पादक बन चुका था , यानि मनुष्य अब खाद्य संग्राहक से खाद्य उत्पादक बन चुका था। विस्तार--- भारत मे अनेक नव पाषाण कालीन संस्कृतियों के प्रमाण मिलतें हैं जिनमे सबसे पहला मेहरगढ़ स्थल है जो सिन्धु और बलूचिस्तान में मिलता है ,इसका समय ईसा पूर्व 7000 साल पहले कृषि उत्पादन शुरू हो चुका था यानी आज से 9 हज
Gupt kaal ki samajik arthik vyavastha,, गुप्त काल की सामाजिक आर्थिक व्यवस्था
गुप्त काल की सामाजिक आर्थिक व्यवस्था------------ गुप्त कालीन सामाजिक व्यवस्था : गुप्त काल में पहले से चली आ रही वर्ण व्यवस्था ही थी , सभी वर्ण के कार्यों का विभाजन था ,जातियाँ इतनी नही थी जैसे आज है परंतु आर्थिक व्यवस्था के उस समय बदलने से सामाजिक व्यवस्था में भी कुछ परिवर्तन देखने को मिलता है , जैसे अभी तक ब्राम्हण सिर्फ ,यज्ञ, अध्यापन, भिक्षा लेना, भिक्षा देना, कार्य कर सकते थे ,परंतु अब स्मृतिकारों ने उन्हें संकटकाल में कोई दूसरा व्यवसाय अपनाने की भी अनुमति दे दी थी। बृहस्पति नामक स्मृतिकार ने कहा है कि संकटकाल में में ब्राम्हण शूद्र द्वारा भी अन्न या भोजन ग्रहण कर सकता था।यानि इस समय तक ब्राम्हण की आर्थिक स्थिति कमजोर हुई थी ,यज्ञ का विधान कम हुआ था। यद्यपि गुप्त काल में भूमिदान की प्रथा फिर से शुरू हुई, जिससे उनको दान में भूमि मिली, इस समय कुछ ब्राम्हण ने अपने पेशे शिक्षण,यज्ञ के अलावा दूसरे पेशे को भी अपना लिया था, वकाटक और कदम्ब वंश जैसे राजवंश जो ब्राम्हण कुल से थे और शक्तिशाली राजवंश थे। गुप्त सम्भवता गैर क्षत्रिय थे इसलिए गुप्त शासकों को स्वयं को
मध्य पाषाण काल| The Mesolithic age, middle Stone age ,madhya pashan kaal
मध्यपाषाण काल (Mesolithic Age) या Middle Stone Age-- मध्य पाषाण काल के विषय में जानकारी सर्वप्रथम 1967 में सी एल कार्लाइल ने की जब उन्होंने लघु पाषाण उपकरण खोज निकाले ,ये लघु पाषाण उपकरण आधे इंच से पौन इंच तक थे, या कह सकते हो एक से आठ सेंटीमीटर के औजार थे। भारत मे मानव अस्थिपंजर मध्यपाषाण काल से ही मिलने प्रारम्भ हुए, भारत मे मध्य पाषाण कालीन पुरास्थल राजस्थान,गुजरात , बिहार ,मध्यप्रदेश,महाराष्ट्र,आंध्रप्रदेश, कर्नाटक ,आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु,केरल,उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में मध्यपाषाण कालीन लघु पाषाण कालीन वस्तुएं उत्खनन में प्राप्त हुईं हैं,यदि सबसे मुख्य स्थलों की बात करें तो इनमे से एक बागोर है जो राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में स्थित है यहां 1968-1970 के बीच वी एन मिश्रा ने उत्खनन करवाया,यहां से मानव कंकाल मिला है, आगे मध्य प्रदेश आतें है तो यहां तो यहां होशंगाबाद जिले में अवस्थित आदमगढ़ शैलाश्रय से 25 हजार लघु पाषाण उपकरण प्राप्त हुए। इसी प्रकार रायसेन जिले में स्थित भीमबेटका के शैलाश्रय और गुफाओं से मध्यपाषाण कालीन उपकरण प्राप्त हुए । उत्तर प
Comments
Post a Comment
Please do not enter any spam link in this comment box