इरफ़ान ख़ान|एक उम्दा अभिनेता
इरफ़ान ख़ान का बचपन-
साहबजादे इरफ़ान अली ख़ान का जन्म 7 जनवरी 1967 को राजस्थान के टोंक जिले में हुआ था
इरफ़ान ख़ान जयपुर के पठान परिवार से ताल्लुक रखते थे , इरफ़ान ख़ान के पिता का जयपुर शहर में टायर का व्यापार था , इरफ़ान खान के पिता का नाम यास्मीन अली ख़ान था और माता का नाम सईदा बेगम था , इरफ़ान खान तीन भाई बहन थे , इरफ़ान खान का बचपन जयपुर में ही बीता उन्हें बचपन में स्कूल जाना बड़ा बोरियत भरा काम लगता था , यद्यपि उन्हें पढ़ना अच्छा लगता था ,पढ़ने में उनकी गिनती बहुत तेजतर्रार बच्चों में नही थी ,पर मध्यमदर्जे के स्टूडेंट थे।
इरफ़ान खान बचपन में अपने पिता के साथ जयपुर के जंगल में शिकार के लिए जाते थे ,उनको जंगल में रात बिताना अच्छा लगता था ,वो जंगल में पेंड पौधों और विभिन्न प्रकार के जीव जन्तुवों को गौर से देखते थे वो प्रकृति प्रेमी थे , पर उनको पिता के शिकार की बात समझ में नही आती थी परंतु उन्होंने अपने पिता से कभी ये पूंछने की हिम्मत नही जुटाई कि वो निर्दोष जानवरों को क्यों शिकार करते है पर उनकी माता ने बताया की शिकार का शौक उनको उनके बाबा से मिला था। जब 10 वर्ष के इरफ़ान हो गए तब शिकार पर प्रतिबन्ध लग जाने से जंगल जाना बन्द कर दिया।
इरफान आठ नौ साल के थे तो वो बचपन में अन्य बच्चों से अलग नहीं थे वो अपने हम उम्र लड़के लड़कियों के साथ आइस-पाइस का खेल खेलते थे
इरफान खान को बचपन मे पतंगबाजी का भी शौक था, वो जयपुर में अपने मित्रों के साथ पतंगबाजी का मजा लेते थे। इसके अलावा किशोरावस्था में अन्य खेल भी खेलते थे। इरफ़ान खान जयपुर से टोंक अपनी नानी के घर अक्सर जाते रहते थे क्योंकि नानी उनको बहुत प्यार करतीं थीं, जबकि उनकी माता उनके किसी न किसी बात से असहमत होने पर बात करना बन्द कर देती थी,पर इरफ़ान खान सदैव माता आशीर्वाद लिए उनका हाँथ अपने सिर में रखने का इंतजार करते रहते थे।
इरफ़ान खान को क्रिकेट का शौक बचपन से साथ स्कूल खत्म होने के बाद वो अपने घर के पास के चौगान स्टेडियम में क्रिकेट खेलने चले जाते थे , वो क्रिकेट में अपनी पहचान बनाना चाहते थे , वो सी. के .नायडू ट्रॉफी के लिए भी चयनित हो गए पर उनके माता पिता उनके क्रिकेट में carrer बनाने में सहमत नही हुए उन्होंने आगे की शिक्षा को पूरा करने को कहा ,इरफ़ान खान ने BSc में एडमिशन ले लिया , उन्होंने ग्रेजुएशन को विधिवत किया ,साथ में कॉलेज के हर साल होने वाले नाटक में हिस्सा लेने का अवसर मिला ,उनके कुछ मित्रों की मण्डली बन गई जो नाटको में अभिनय का शौक रखते थे , उनकी मुलाक़ात एक ऐसे सख्स से हुई जो NSD का डिप्लोमा लेकर लौटा था और शहर शहर नाट्य मंच में अपनी प्रस्तुति देता था , नाट्य मंच में हिस्सा लेते हुए इरफ़ान को एक्टिंग की कई बारीकियां पता चलीं और उनका जूनून अभिनय की तरफ हो गया ,ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद वो MA की डिग्री भी ले चुके थे ,उनके पिता ने उनके लिए एक कॉलेज में बतौर अध्यापक बनने के लिए बात भी कर ली थी , जो तदर्थ नियुक्ति होनी थी ।पर इरफ़ान इसके लिए सहमत नही हुए और अपने भाई को एक्टिंग में carrer बनाने की बात कही ,शुरुआत में उनके पास किसी थिएटर में काम का certificate नही था क्योंकि NSD में एडमिशन लेने के लिए 5 नाटकों में अभिनय का प्रमाण पत्र देना पड़ता था ,पर इरफान खान को किसी तरह NSD में एडमिशन मिल गया ,फिर शुरू हुई नई स्टोरी ,इरफ़ान खान को NSD के उन्मुक्त और खुलेपन के जीवन से आश्चर्य हुआ क्योंकि यहां पर लडकिया जो ट्रेनिंग ले रहीं थीं वो सिगरेट खुलेआम पीतीं थी क्योंकि इरफ़ान खान के शहर जयपुर में ऐसे घटनायेें नहीं होती थीं इसलिए उनके लिए ये कल्चर एक अजूबा थी खैर धीरे धीरे वो इस जीवन में जल्द अभ्यस्त हो गए।
इरफ़ान खान का फ़िल्मी सफरनामा--
NSD में नाट्य कला सीखने के बाद वो कुछ दिन दिल्ली के थिएटर में अभिनय किया ,फिर वो मुम्बई के मायानगरी में अपने एक्टिंग के लोहा को मनवाने के लिए पदार्पण किया , शुरुआत में उन्हें संघर्ष करना पड़ा, पर 1986 के दरम्यान उनकी सीनियर NSD से लौटी मीरा नायर से संपर्क हुआ ,मीरा नायर उस समय सलाम बॉम्बे का निर्देशन कर थीं , वो इमरान के बोलने के अंदाज से प्रभावित तभी से थीं जब एक बार जूनियर आर्टिस्ट की क्लास लेने NSD गई हुईं थी ,उन्होंने इरफान खान के हूनर को पहचाना और सलाम बॉम्बे में एक राइटर का रोल के लिए चुन लिया ,फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट हुई और इमरान के काम की भी सराहना नही हुई क्योंकि फ़िल्म रिलीज के समय इनका रोल ही कट चुका था , ऐसा नही कि उनको फ़िल्म नगरी में अपनी पहचान के लिए जद्दोजहद नहीं करना पड़ा ,इसके बाद उनको एक दो छोटे मोटे रोल TV सीरियल में मिले ,पर फिल्मो में कोई रोल नही मिल पाया वो ऑडीशन के लिए जाते पर कोई भूमिका उनको नही मिलती , तब एक मोड़ आया ,TV सीरियल भारत एक खोज और चन्द्रकान्ता में काम मिला उन्होंने इसे अपना नसीब समझा क्योंकी काम नही मिलने से वो निराश हो रहे थे , आर्थिक स्थिति भी कमजोर होती जा रही थी , चाणक्य में भी एक्टिंग का अवसर मिला ,उन्होंने अपनी पहचान छोड़ी घर घर में लोग उन्हें पहचानने लगे थे । पर वो TV सीरियल में ज्यादा काम करके एक टाइप में नही सिमटना चाहते वो निरंतर प्रयासरत थे सिनेमा में काम के लिए पर लगातार प्रयास के बाद भी कोई फ़िल्म नही मिली ,तब निराश होकर जयपुर लौटने का निश्चय किया अपने भाई के टायर के व्यापार में हाँथ बटाने का निश्चय किया था ।1990 में "बड़ा दिन" और "पुरुष "में रोल मिला पर कोई पहचान नही हो सकी तभी 1990 में बनी एक फ़िल्म "डॉक्टर की मौत" से उनको ब्रेक मिला इस फ़िल्म से पहचान बनाने में कामयाब हुए। इस बीच इनकी अभिनीत कुछ फिल्में यद्यपि फ्लॉप भी हुईं। जिनमें छोटे छोटे रोल थे। जैसे 1994 में "वादे इरादे" 1997 में "प्राइवेट डिटेक्टिव " और" टू प्लस वन" में इंस्पेक्टर खान की भूमिका निभाई ।
इसके बाद 2003 में तिगमांशु धुलिया की फ़िल्म "हासिल" रिलीज हुई , इसमें उन्हें एक खलनायक रणविजय सिंह का रोल मिला ये फ़िल्म इलाहाबाद के छात्र नेताओं के गुटबाजी और संघर्ष पर आधारित थी। इस फ़िल्म में उनको 2004 का फ़िल्मफ़ेअर का "सर्वश्रेष्ठ खलनायक" का अवार्ड मिला, इस तरह 2003 में विशाल भरद्वाज की फ़िल्म "मकबूल" जिसमे ओमपुरी, पंकज कपूर जैसे अनुभवी कलाकार थे उनके बीच इरफ़ान खान ने अपनी अलग पहचान छोड़ गए इस फ़िल्म में।2005 में रिलीज् फ़िल्म थी रोग! 'रोग " फ़िल्म में इनको लीड रोल मिला।
इसी तरह 2006 में मीरा नायर की "नेमसेक" प्रदर्शित हुई इसमें अशोक गांगुली की भूमिका निभाई, इसमें इरफ़ान ने उम्दा अभिनय किया,2007 में mighty heart और "दार्जिलिंग लिमिटेड" से उनको हॉलीवुड में पैर जमाने का मौका मिला,वैसे 2001 में रिलीज होगीहॉलीवुड की फ़िल्म "the worrior'" में वह अपनी भूमिका से सबको अचंभित कर चुके थे.।
इसी तरह 2008 में ऑस्कर अवार्ड से सम्मानित फ़िल्म "स्लम डॉग मिलेनायर" में इंस्पेक्टर के रोल में ही जान डाल दिया।इस फ़िल्म के ऑस्कर अवार्ड मिलने के बाद इरफ़ान को अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिली और इन्होंने हॉलीवुड की फ़िल्म "द इमेजिंगस्पाइडरमैन" (2012),"जुरासिक वर्ल्ड "(2015) और "इन्फर्नो" (2016) में काम करने का अवसर मिला।
इसी समय उनकी पत्नी सुतापा की लिखी कहानी से बनी फ़िल्म मदारी (2016) में बनीं और "करीब करीब सिंगल" बनी। चूंकि उनकी पत्नी एक राइटर थीं।
इसी तरह , लाइफ ऑफ़ मेट्रो , हैदर , पीकू , द वार्रियर, लंच बॉक्स, द क्लाउड डोर, प्रथा, चरस,बिल्लू बार्बर, ये साली जिंदगी(2012),सात खून माफ़, (2012) इसमें इरफान वैलुद्दीन खान की भूमिका निभाई थी , जज्बा , जी डे, "साहब बीबी और गैंगेस्टर रिटर्न्स" ,"एसिड फैक्ट्री, हिस्स, राइट ऑर रॉंग, संडे, ए माईट हर्ट, क्रेजी फोर(2008),नाक आउट, Ann -men at work में यूसुफ पठान बने थे।
,हिंदी मीडियम में उनके उम्दा अभिनय ने अलग पहचान बनाईं। 2008 में फ़िल्म लाइफ ऑफ मेट्रो में उनको सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का फ़िल्म फेयर पुरस्कार मिला
फ़िल्म "पान सिंह तोमर" मील का पत्थर साबित हुई इस फ़िल्म के लिए 2013 में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इसके पहले भारत सरकार ने 2011 में उन्हें पद्मश्री का पुरस्कार दिया था।2018 में हिंदी मीडियम के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्म फेयर पुरस्कार मिला।
2020 में उन्होंने कैसर से लड़ते हुए हिंदी मीडियम का सीक्वल" इंग्लिश मीडियम" में काम किया ये उनकी लास्ट फ़िल्म साबित हुई, जो फ़िल्म लॉक डाउन के एक दिन पूर्व सिनेमा घरों में प्रदर्शित हुई।
उनके एक्टिंग विधा को देखकर हॉलीवुड के अभिनेता टॉम हैक्स ने कहा कि इरफ़ान की आँख भी अभिनय करती थी । एक्टिंग के इस बादशाह ने हॉलीवुड से बॉलीवुड तक विभिन्न भूमिकाएं करके अपनी अलग पहचान बनाई ,जिस फ़िल्म में इमरान खान होते तो लोग ये सोंच कर देखते थे कुछ न् कुछ तो इस फ़िल्म में अलग होगा जो अभी तक नही किया गया।
इरफ़ान खान के अंतिम दिन-
53 साल की उम्र तक इन्होंने छोटी बड़ी सभी फ़िल्म मिलाकर 70 फ़िल्म में काम किया , सितम्बर 2018 में जब इस अभिनेता को अपने रोग "एंड्रोकाइन् ट्यूमर "की जानकारी मिली तो ये जिंदादिली से खुद को मजबूत रखा एक वर्ष तक इंग्लैंड में इलाज के दरमियान ये पूरी तरह ठीक हो गए थे ,परंतु उनको कोलन इन्फेक्शन के कारण 25 अप्रैल को अचानक तबियत बिगड़ने पर कोकिलाबेन अस्पताल में लाया गया , परंतु 29 अप्रैल 2020 को वो इस दुनिया को छोड़ कर चले गए। उन्होंने अपने अंतिम शब्द कहा मुझे अम्मी बुला रहीं है , उनकी अम्मी का देहांत भी 95 साल की उम्र में चार दिन पूर्व हो गया था और वो बहुत दुखी हुए थे।
उनके पर्थिव शरीर को बरसोवा के कब्रिस्तान में दफनाया गया ,वो अपने पीछे पत्नी सुतापा सिकदर दो बच्चे बाबिल और अयान को छोड़ गए हैं।
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