अतुल डोडिया: भारतीय समकालीन कला का एक चमकता सितारा

जब हम वैश्विक व्यापार की बात करते हैं, तो सबसे पहले मन में WTO, यानी विश्व व्यापार संगठन का नाम आता है। इसकी स्थापना 1995 में बड़े ही आदर्श उद्देश्य के साथ की गई थी — कि सारे देश मिलकर व्यापार को निष्पक्ष, मुक्त और समरस बनाएं। परंतु आज, तीन दशक बाद जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं, तो लगता है कि ये संगठन अब केवल कागज़ी शक्ति बनकर रह गया है। खासकर जब हम अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश के हालिया रवैये को देखते हैं, तो यह सवाल और ज़ोर से उठता है — "जब WTO है, तो अमेरिका टैरिफ क्यों लगा रहा है?"
असल में, इस प्रश्न का उत्तर सिर्फ व्यापारिक नहीं, बल्कि राजनीतिक, सामाजिक और सामरिक है। अमेरिका लंबे समय से यह महसूस करता आ रहा है कि वैश्विक व्यापार में वह घाटे का सौदा कर रहा है। उसका व्यापार घाटा, विशेषकर चीन और भारत जैसे देशों के साथ, कई खरब डॉलर तक पहुँच गया है। एक ओर जहाँ चीन जैसे देश अमेरिका में सस्ते उत्पाद बेचकर भारी मुनाफ़ा कमा रहे हैं, वहीं अमेरिका को खुद के उत्पाद दूसरे देशों में बेचने में कठिनाई हो रही है। इसके पीछे कई कारण हैं — जैसे कि भारत जैसे देशों द्वारा आयात पर अधिक शुल्क लगाना, तकनीकी बाधाएँ, और स्थानीय उत्पादकों को दी जाने वाली सब्सिडियाँ।
यही वह पीड़ा थी, जिसे अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने शब्दों में कुछ इस तरह बयान किया था — "हर देश ने अमेरिका से अरबों डॉलर कमाए, अब अमेरिका को भी अपना हक चाहिए।" यह सोच आज भी अमेरिका की व्यापार नीति में जीवित है। वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडन की नीतियाँ भी इसी दिशा में संकेत करती हैं — कि अब अमेरिका केवल उदार नहीं रहेगा, बल्कि अपने उद्योगों, नौकरियों और अर्थव्यवस्था की रक्षा के लिए आक्रामक कदम उठाएगा।
टैरिफ यानी शुल्क, अब सिर्फ एक व्यापारिक हथियार नहीं रहा। यह बन चुका है एक प्रकार का "राष्ट्रवाद का प्रदर्शन"। अमेरिका की "Reciprocal Tax" नीति, जिसमें अगर कोई देश अमेरिकी उत्पादों पर टैक्स लगाता है तो वह भी उसी अनुपात में टैक्स लगाएगा, इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। इसे लेकर कई बार यह तर्क भी दिया जाता है कि यह नीति WTO के मूलभूत सिद्धांतों के विरुद्ध है। लेकिन अमेरिका जैसे देशों के लिए अब WTO के नियम एक सीमित मार्गदर्शक भर रह गए हैं। वे अब "अपने हित पहले" की नीति पर चल पड़े हैं।
अब बात करें कि इस सबका असर भारत पर क्या पड़ेगा, तो इसका उत्तर थोड़ा जटिल है। भारत ने हाल के वर्षों में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में कई कदम उठाए हैं — 'मेक इन इंडिया', 'स्टार्टअप इंडिया', और हाल ही में 'वोकल फॉर लोकल' जैसी योजनाएँ इसी का हिस्सा हैं। लेकिन सच्चाई यह भी है कि भारत की अर्थव्यवस्था आज भी निर्यात पर निर्भर है। भारत फार्मा, टेक्सटाइल, इंजीनियरिंग गुड्स, आईटी सर्विसेज़ आदि के क्षेत्र में अमेरिका और यूरोप को भारी मात्रा में निर्यात करता है। ऐसे में अगर अमेरिका आयात शुल्क बढ़ाता है, या किसी प्रकार की नीतिगत बाधाएँ खड़ी करता है, तो भारत की अर्थव्यवस्था भी उससे अछूती नहीं रह पाएगी।
वैश्विक स्तर पर भी हालात कुछ अलग नहीं हैं। आजकल एक नई प्रवृत्ति देखने को मिल रही है — "De-globalization", यानी वैश्वीकरण से दूरी। देश अब केवल खुले बाजार की बात नहीं कर रहे, बल्कि यह भी सोच रहे हैं कि ज़रूरत की चीज़ें अपने देश में ही उत्पादित हों। अमेरिका में इसे "Reshoring" कहा जा रहा है — जहाँ कंपनियों को चीन या भारत जैसे देशों से वापस अमेरिका लाया जा रहा है।
इस नीति का एक और बड़ा असर यह हो रहा है कि वैश्विक मांग और आपूर्ति का संतुलन बिगड़ रहा है। जब हर देश उत्पादन तो करता है, लेकिन उपभोग नहीं होता, तो बाजार में माल जमा हो जाता है। इससे कंपनियों की बिक्री घटती है, लाभ घटता है और धीरे-धीरे पूरी अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ने लगती है। यही डर अब भारतीय शेयर बाजार में भी दिखने लगा है। विदेशी निवेशक अपने पैसे निकाल रहे हैं, बाजार में अस्थिरता बढ़ रही है और निवेशकों का विश्वास कमजोर हो रहा है।
हालांकि, यह कहना कि हम फिर से कोविड जैसी मंदी में चले जाएंगे, शायद अतिशयोक्ति होगी। लेकिन इतना ज़रूर है कि वैश्विक व्यापार में अनिश्चितता का जो माहौल बना है, वह किसी भी देश के लिए शुभ संकेत नहीं है।
निष्कर्ष के तौर पर — अमेरिका का यह कदम कि वह अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए टैरिफ और Reciprocal Tax जैसे उपाय अपनाएगा, गलत नहीं कहा जा सकता। कोई भी देश अपने उद्योगों, श्रमिकों और अर्थव्यवस्था की रक्षा के लिए कदम उठाता है। परंतु जब ऐसा कदम विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था उठाती है, तो उसका प्रभाव दुनिया के हर कोने तक पहुँचता है — भारत भी इसका अपवाद नहीं है।
हमें एक संतुलित रास्ता चुनना होगा — जहाँ हम आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ें, पर वैश्विक व्यापार की ज़रूरतों को भी समझें। क्योंकि अकेले चलकर कोई देश आर्थिक महाशक्ति नहीं बनता, उसे दूसरों के साथ चलना भी आना चाहिए।
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